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'धड़क 2' में जाति को लेकर क्या दिखाया गया है जिसकी हो रही चर्चा

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SUJIT JAISWAL/AFP via Getty Images धड़क 2 फ़िल्म के कलाकार तृप्ति डिमरी और सिद्धांत चतुर्वेदी

फ़िल्ममेकर, राइटर और प्रोडक्शन डिज़ाइनर शाज़िया इक़बाल की पहली फ़ीचर फ़िल्म 'धड़क 2' ने भले ही मोहित सूरी की 'सैयारा' की तरह कई सौ करोड़ रुपये न कमाए हों, लेकिन भारतीय सिनेमा के इतिहास में इसे एक बदलाव लाने वाली फ़िल्म के रूप में याद किया जाएगा.

यह मेनस्ट्रीम की उन गिनी-चुनी हिंदी फ़िल्मों में से एक है, जिन्होंने जाति आधारित भेदभाव, अन्याय और उत्पीड़न जैसे मुद्दों को गहराई और संवेदनशीलता के साथ दिखाया है.

हालांकि, इसमें सिद्धांत चतुर्वेदी के 'ब्राउन फ़ेस' वाले लुक पर काफ़ी बहस और आलोचना हुई है. वह इस फ़िल्म में एक दलित लड़के, नीलेश अहिरवार का किरदार निभा रहे हैं, जो अपनी पहचान को स्वीकारने और समझने की कोशिश में है.

हालांकि इस विवाद को अलग रख दें, तो फ़िल्म का नज़रिया न तो तरस खाने वाला है और न ही सतही, बल्कि यह वंचित तबके की सच्चाई को ईमानदारी से दिखाती है.

फ़िल्म में बॉलीवुड वाला भावनात्मक असर और बड़ा सिनेमाई पैमाना तो है ही, साथ ही ये कई विरोधाभासी सच्चाइयों को भी समझाती और दिखाती है. यह विशेषाधिकार प्राप्त तबके को सवालों के घेरे में लाने से नहीं हिचकती.

यह दर्शकों को जोड़ती भी है और सोचने पर मजबूर भी करती है. यह वंचितों के हकों के मुद्दों पर चर्चा की शुरुआत करने वाली फ़िल्म है.

यह बात इसलिए और भी मायने रखती है क्योंकि सौ साल से अधिक पुराने मेनस्ट्रीम हिंदी सिनेमा में जातिवाद के ख़िलाफ़ कहानियां बेहद कम बनी हैं, और वंचित तबके के किरदारों को केंद्र में रखने वाली फ़िल्में तो उससे भी कम.

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असरदार किरदार image x.com/DharmaMovies

जून 2015 में अंग्रेज़ी अख़बार 'द हिंदू' की एक स्टडी में पता चला कि 2013-2014 के दौरान रिलीज़ हुई क़रीब 300 बॉलीवुड फ़िल्मों में से सिर्फ छह फ़िल्मों के मुख्य किरदार पिछड़ी जाति से थे.

इसके उलट, 'धड़क 2' में मुख्य किरदार के अलावा भी कई प्रभावशाली किरदार वंचित समुदायों से आते हैं.

इनमें सबसे प्रभावशाली हैं प्रियांक तिवारी, जो युवा नेता शेखर का किरदार निभाते हैं (यह किरदार रोहित वेमुला से प्रेरित है, जो हैदराबाद विश्वविद्यालय के पीएचडी स्कॉलर थे. वो कैंपस में जातिगत अन्याय के मुद्दे उठाते थे. निलंबन के बाद उन्होंने आत्महत्या कर ली थी.)

फ़िल्म में शेखर एक जगह पर कहते हैं, "अन्याय क़ानून बन जाए तो उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना लोगों का कर्तव्य है."

इसके अलावा अनुभा फतेहपुरा ने नीलेश (मुख्य किरदार) की मां का रोल निभाया है. वो भले ही कमज़ोर स्थिति में हों और विशेषाधिकार प्राप्त लोगों से अपमान झेलती हों, लेकिन इसे चुपचाप सहने वालों में से नहीं हैं.

उन्हें अपने अधिकारों की पूरी जानकारी है और उन अधिकारों की लड़ाई में वे आरक्षण और समान अवसर जैसे क़दमों पर भरोसा करती हैं.

जाति का मुद्दा और तमिल सिनेमा

'धड़क 2' जैसी कहानियां बॉलीवुड में भले ही अपवाद हों, लेकिन भाषाई, ख़ासकर तमिल फ़िल्म इंडस्ट्री में इनका गहरा असर दिखता है. वहां लगातार वंचित तबके के मुद्दों पर फ़िल्में बनी हैं और कई मुख्य किरदार भी इन्हीं समुदायों से लिए गए हैं.

के. रविंद्रन की तेलुगु फ़िल्म 'हरिजन' और बी.वी. करण्थ की कन्नड़ फ़िल्म 'चोमना डुडी' दक्षिण की एंटी-कास्ट क्लासिक फ़िल्में मानी जाती हैं.

समकालीन तमिल सिनेमा में मारी सेल्वराज की 'कर्णन' में सुपरस्टार धनुष के ज़रिए वंचित तबके का उबलता गुस्सा सामने आया.

लीना मणिमेकलई की फ़िल्म 'मादथी' में लैंगिक हिंसा की गहरी पड़ताल हुई. पा. रंजीत की 'सारपट्टा परंबराई' और टी.के. ज्ञानवेल की 'जय भीम' ने मुद्दों को लेकर बहस छेड़ी और बॉक्स ऑफ़िस पर भी अच्छा प्रदर्शन किया.

तमिलनाडु में आम ज़िंदगी और सिनेमा दोनों में ही जाति एक बड़ा मुद्दा रहा है. यह सामाजिक चेतना वहां के समाज सुधारक और एक्टिविस्ट-राजनेता पेरियार और द्रविड़ राजनीति की विरासत है.

image LightRocket via Getty Images शाज़िया इक़बाल की फ़िल्म 'धड़क 2' मारी सेल्वराज की चर्चित तमिल फ़िल्म का हिंदी रूपांतरण है

शाज़िया इक़बाल ने अंग्रेज़ी अख़बार द न्यू इंडियन एक्सप्रेस से हाल ही में हुई बातचीत में कहा, "वहां आपको जाति पर कई कहानियां मिलेंगी, जो यहां (बॉलीवुड) नहीं दिखतीं, क्योंकि तमिलनाडु में कई ऐसे फ़िल्मकार आए हैं, जिन्होंने यह संस्कृति बनाई है कि 'हम यहां हैं और हमारी कहानियां सुनाने से कोई हमें रोक नहीं सकता'. बॉलीवुड में भी ऐसा होना चाहिए."

शाज़िया इक़बाल की 'धड़क 2' दरअसल मारी सेल्वराज की चर्चित तमिल फ़िल्म 'परीयेरुम पेरुमाल' का हिंदी एडॉप्टेशन है. उन्होंने इसे उत्तर भारत में सेट किया है और इसे जेंडर के नज़रिए से एक लव स्टोरी के रूप में दोबारा गढ़ा है.

शाज़िया इक़बाल का मानना है कि लव स्टोरी के ज़रिए समाज में मौजूद अलग-अलग तरह के पूर्वाग्रहों और भेदभाव के बारे में बेहद असरदार तरीके से बात की जा सकती है.

दक्षिण का सिनेमा ज़मीनी हक़ीक़त को गहराई से समझकर बनता है, जबकि बॉलीवुड में यह अक्सर सिर्फ़ एक बनावटी कोशिश जैसा लगता है. हिंदी सिनेमा पर अक्सर पहचान को मिटाने का आरोप लगाया जाता है, जबकि तमिल सिनेमा को हक़ीक़त में जड़ें जमाए रखने के लिए सराहा गया है.

ख़ासकर 90 के दशक में हिंदी फ़िल्मों में शहरी, ग्लोबल और चकाचौंध भरी ऐसी कहानियां आईं, जो प्रवासी भारतीय दर्शकों को ध्यान में रखकर बनाई गईं और जिनमें वंचित तबके की कोई जगह नहीं थी.

इस तरह, ज़्यादातर किरदार अपनी पहचान से जुड़े नहीं होते, चाहे वह जाति, वर्ग, धर्म, जेंडर या सेक्सुअलिटी की पहचान हो.

शाज़िया इक़बाल ने द न्यू इंडियन एक्सप्रेस को दिए इंटरव्यू में कहा, "असल में सब कुछ पहचान के इर्द-गिर्द ही घूमता है, चाहे वह जातीय पहचान हो, धार्मिक पहचान हो या जेंडर की पहचान. लेकिन हम अपनी फ़िल्मों में इसे छूते तक नहीं हैं."

उन्होंने आगे कहा, "अपने रिसर्च के दौरान मुझे समझ में आया कि लोगों को लगता है जाति का मुद्दा सिर्फ गांवों में है, लेकिन बाद में अहसास हुआ कि यह हर जगह है. यही हमारी फ़िल्म की सेंट्रल थीम है कि आप छोटे शहरों से बड़े शहरों में चले जाएं, फिर भी आपकी पहचान आपका पीछा नहीं छोड़ती."

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नागराज मंजुले की भी है इस मुद्दे पर पकड़

'धड़क 2' से पहले हिंदी सिनेमा में जातिगत रिश्तों को असरदार तरीके से दिखाने वाली एक और अहम फ़िल्म नागराज मंजुले की पहली हिंदी फ़िल्म 'झुंड' थी .

मंजुले अपनी मराठी फ़िल्मों 'फैंड्री' और 'सैराट' के लिए भी जाने जाते हैं. मई 2017 में द हिंदू को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, "जाति हमारे समाज की नींव है. यह एक सच्चाई है, जिससे बचने के लिए ख़ास हुनर चाहिए. बॉलीवुड के पास वह हुनर है, मेरे पास नहीं."

मंजुले अपनी दलित पहचान को खुलकर अपनाते हैं और 'झुंड' फ़िल्म में उन्होंने अपने ग़रीब और वंचित पात्रों को भी वही आत्मविश्वास दिया.

'झुंड' फ़िल्म के उनके किरदार दर्शकों की दया के पात्र नहीं हैं, बल्कि उनमें मुश्किल हालात के बावजूद हिम्मत और जज़्बा है. उनके प्रोफ़ेसर (अमिताभ बच्चन) उन्हें बचाने वाले मसीहा नहीं बल्कि उनके साथी हैं. यह नज़रिया पहले बनी फ़िल्मों से बिल्कुल अलग था.

image NAGRAJ MANJULE/FACEBOOK राष्ट्रीय पुरस्कार लेते नागराज मंजुले प्रतिनिधित्व का इतिहास

माना जाता है कि सिनेमा में दलितों के प्रतिनिधित्व का इतिहास फ्रांज़ ओस्टेन की 'अछूत कन्या' से शुरू हुआ, जो साल 1936 में आई थी. ये एक निचली मानी जानी वाली जाति की लड़की और ब्राह्मण लड़के की प्रेम कहानी थी. इसे सामाजिक बहिष्कार और छुआछूत को लेकर पहली कोशिश माना जाता है.

एक और फ़िल्म जिसकी काफी चर्चा हुई, वो थी बिमल रॉय की 'सुजाता' जो साल 1959 में आई थी. इस फ़िल्म में नूतन ने एक अछूत लड़की का किरदार निभाया था. वो एक ब्राह्मण परिवार पली-बढ़ीं. लेकिन तथाकथित प्रगतिशील दुनिया में भी ये किरदार पूर्वाग्रहों का शिकार होता है.

गांधी के छुआछूत-विरोधी सिद्धांत से प्रेरित सुजाता ऊंची मानी जाने वाली जाति के फ़िल्मकारों की रचना थी. इसमें समाज में विशेषाधिकार प्राप्त किरदार बेबस लड़की का उद्धार करने के लिए सामने आते दिखाए गए हैं. शायद उस समय इस मुद्दे को सही दिशा में आगे बढ़ाने के लिए सवर्णों की तरफ से इस तरह का हस्तक्षेप ज़रूरी था.

सालों बाद, अशुतोष गोवारिकर की फ़िल्म 'लगान' (साल 2001) में भी कचरा नाम का एक अछूत किरदार था. ये एक अनोखा स्पिन गेंदबाज़ था और फ़िल्म में क्रिकेट टीम का हिस्सा था. अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ मैच जिताने में इस किरदार की अहम भूमिका थी.

फ़िल्म में उसके दर्द या असमान दुनिया में उसके संघर्ष को नहीं दिखाया गया. कहानी ज़्यादा इस बात पर थी कि कैसे सबको (वंचितों को भी) साथ लेकर समुदाय और देश की भलाई के लिए, ख़ासकर विदेशी आक्रमणकारियों के ख़िलाफ़, एकजुट होना है.

प्रकाश झा की 'आरक्षण' (साल 2011) में सैफ़ अली ख़ान ने एक पढ़े-लिखे दलित व्यक्ति का किरदार निभाया. फ़िल्म में ये किरदार काफ़ी बेअसर लगा. झा ने फ़िल्म की शुरुआत आरक्षण के मुद्दे से की, लेकिन बाद में कहानी शिक्षा के व्यवसायीकरण की ओर मुड़ गई.

अनुभव सिन्हा की 'आर्टिकल 15' (साल 2019) ने भी जातिगत असमानताओं को उठाया, लेकिन शहरी, पढ़े-लिखे और विशेषाधिकार हासिल किए हीरो (आयुष्मान खुराना) की नज़र से. यह फ़िल्म भेदभाव झेलने वालों की कहानी की बजाय उद्धार करने वाले एक ब्राह्मण और ख़ुद को बदलाव का मसीहा मानने वाले किरदार की कहानी बनकर रह गई.

जाति से जुड़े मुद्दों पर सबसे असरदार और मज़बूत काम पैरेलल और न्यू वेव हिंदी सिनेमा में हुआ है.

इस दौर की अहम फ़िल्मों में श्याम बेनेगल की 'अंकुर' (साल 1974), सत्यजीत रे की 'सद्गति' (साल 1981), गौतम घोष की 'पार' (साल 1984), प्रकाश झा की 'दामुल' (साल 1985), अरुण कौल की 'दीक्षा' (साल 1991), शेखर कपूर की 'बैंडिट क्वीन' (साल 1994), बेनेगल की 'समर' (साल 1999) और जब्बार पटेल की हिंदी-अंग्रेज़ी फ़िल्म 'डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर' (साल 2000) शामिल हैं.

नीरज घेवान: हिंदी सिनेमा में नई आवाज़ image Getty Images नीरज घेवान

कुछ युवा और स्वतंत्र निर्देशकों ने एंटी-कास्ट कहानियों में नए और ताज़ा नज़रिए पेश किए, जैसे- बिकास मिश्रा की 'चौरंगा' (साल 2014) और चैतन्य तम्हाणे की मराठी-गुजराती-हिंदी-अंग्रेज़ी फ़िल्म 'कोर्ट' (साल 2014).

सबसे अहम समकालीन आवाज़ नीरज घेवान की रही है. वह हिंदी सिनेमा के कुछ गिने-चुने पहचाने जाने वाले दलित निर्देशकों में से एक हैं और शायद अकेले ऐसे फ़िल्मकार हैं, जो लगातार इंडस्ट्री के ब्राह्मणवादी ढांचे को चुनौती देने की कोशिश कर रहे हैं.

नीरज घेवान की पहली फ़िल्म 'मसान' (साल 2015) बनारस की जातीय राजनीति की पृष्ठभूमि में प्यार, बिछड़ने और चाहत की कहानी है. इसका प्रीमियर कान फ़िल्म फ़ेस्टिवल के 'अन सर्टेन रिगार्ड' सेक्शन में हुआ था. इसे एफ़आईपीआरईएससीआई क्रिटिक्स अवॉर्ड और प्री अवेनिर प्रोमेतुर सम्मान मिला.

उनकी दूसरी फ़िल्म 'होमबाउंड' (साल 2025) का प्रीमियर भी इस साल मई में कान के 'अन सर्टेन रिगार्ड' सेक्शन में हुआ है. यह साल 2020 में द न्यूयॉर्क टाइम्स में छपे बशारत पीर के आर्टिकल 'टेकिंग अमृत होम' से प्रेरित है.

इसमें मोहम्मद सैयूब और उनके बचपन के दोस्त अमृत कुमार की कहानी थी. ये उन हज़ारों प्रवासियों में से थे, जिन्हें साल 2020 की कोविड-19 की पहली लहर में अचानक लॉकडाउन लगने के बाद पैदल ही घर लौटना पड़ा था.

image SUJIT JAISWAL/AFP via Getty Images मसान फ़िल्म में कलाकार विक्की कौशल मुख्य किरदार की भूमिका में थे

फ़िल्म में नीरज घेवान ने वंचितों और अल्पसंख्यकों की मुश्किलों को केंद्र में रखा है, जहां मोहम्मद सैयूब का नाम बदलकर मोहम्मद शोएब अली (ईशान खट्टर) और अमृत कुमार का नाम चंदन कुमार (विशाल जेठवा) कर दिया गया है.

मेरी पसंदीदा घेवान की फ़िल्म 'गीली पुच्ची' है, जो नेटफ्लिक्स की ऐंथॉलॉजी फ़िल्म 'अजीब दास्तांस' का एक हिस्सा है.

घेवान मानते हैं कि उनका खिंचाव जाति, वर्ग, धर्म, जेंडर और सेक्शुअलिटी जैसे विषयों की ओर है, इसमें 'गीली पुच्ची' को बेहद खूबसूरती से रचा गया है.

ये फ़िल्म जाति, जेंडर और सेक्शुअलिटी के बीच के मोड़ पर बेहद ख़ूबसूरती से खड़ी है.

ये जाति के सवाल को परत-दर-परत खोलते हुए, उसे और जटिल क्षेत्र में ले जाती है. यहां जाति के आधार पर बनी कॉमरेडशिप हाशिये पर रहने वालों के बीच एकजुटता के रिश्ते में बदल जाती है.

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.

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