
नवंबर 2005 में सत्ता संभालने के बाद ये पहला मौका है जब जेडीयू सीट बंटवारे में 'बड़े भाई' की भूमिका में नहीं रही.
साल 2020 में एनडीए गठबंधन में जेडीयू ने 115 सीटों पर जबकि बीजेपी ने 110 सीटों पर चुनाव लड़ा था. लेकिन 2025 विधानसभा चुनावों में सीट शेयरिंग फ़ॉर्मूले के मुताबिक़, जेडीयू और बीजेपी दोनों ही 101-101 सीट पर चुनाव लड़ेंगी.
12 अक्तूबर को हुई घोषणा के मुताबिक़, एनडीए गठबंधन में लोजपा (रामविलास) 29 सीटों पर, हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (सेक्युलर) और राष्ट्रीय लोक मोर्चा छह-छह सीटों पर चुनाव लड़ेंगी.
बीते दो दशकों से 'बड़े भाई' का स्टेटस इंजॉय कर रहे जेडीयू कार्यकर्ताओं के लिए ये बड़ा झटका माना जा रहा है. विधानसभा चुनाव लड़ चुके जेडीयू के एक नेता ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं, " बड़े भाई-छोटे भाई की तो रहने ही दीजिए. अभी तो सबसे बड़ा सवाल ये है कि जेडीयू बचेगा या नहीं? "
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एनडीए में सीट शेयरिंग के इस फ़ॉर्मूले के बाद जेडीयू कार्यकर्ताओं की बेचैनी और निराशा बढ़ गई है, वहीं, इस सवाल को भी एक बार फिर कुरेद दिया है कि चुनाव के बाद जेडीयू की बतौर पार्टी क्या स्थिति होगी?
ज़ाहिर तौर पर इसमें जेडीयू का नेतृत्व, नीतीश कुमार की सेहत का सवाल भी जुड़ता है. सवाल ये भी है कि लोजपा (आर) या चिराग पासवान इतनी सारी सीटें अपने पाले में करने में कैसे सफल रहे? जबकि एनडीए खेमे में एक और दलित नेता यानी जीतन राम मांझी की 'हम' को बीते विधानसभा चुनाव से एक सीट कम मिली. इस बार वो 6 सीटों पर चुनाव लड़ेगी जबकि 2020 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने सात सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे.
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12 अक्तूबर को सीट शेयरिंग का फ़ॉर्मूला जब एनडीए नेताओं ने अपने सोशल अकाउंट्स पर शेयर किया तो संशय से भरे जेडीयू कार्यकर्ताओं को निराशा ने घेर लिया.
दरअसल इस साल की शुरुआत में मंत्रिमंडल विस्तार के बाद से ही जेडीयू नेता बार-बार कह रहे थे कि वो विधानसभा चुनाव ज़्यादा सीटों पर लड़ेंगे.
दरअसल फ़रवरी महीने में हुए इस विस्तार में सभी मंत्री बीजेपी कोटे से आते थे. यानी जेडीयू का एक भी नेता मंत्रिमंडल विस्तार का हिस्सा नहीं था. उलटे ये पहला मौका था जब एनडीए सरकार में बीजेपी के मंत्रियों की संख्या जेडीयू से डेढ़ गुना ज़्यादा हो गई थी.
उस वक़्त ख़ुद को तसल्ली और मीडिया के सवालों को शांत करने के लिए जेडीयू के प्रवक्ता बार-बार दोहराते थे कि पार्टी विधानसभा चुनावों में बीजेपी से ज़्यादा सीटों पर चुनाव लड़ेगी, चाहे एक ही सीट ज़्यादा क्यों न हो.
दो दशकों से बिहार की राजनीति की धुरी रही जेडीयू के 'बड़े भाई' का स्टेटस दरअसल 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान ही संकट में आ गया था. इस लोकसभा चुनाव में पार्टी 16 सीटों पर लड़ी थी जबकि बीजेपी 17 सीटों पर.
इससे पहले के लोकसभा चुनाव देखें तो साल 2019 में जेडीयू और बीजेपी दोनों ही 17-17 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. वहीं साल 2009 में जेडीयू ने बिहार में लोकसभा की कुल 40 सीट में से 25 सीट लड़ी थी और बीजेपी ने 15 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे.
साफ़ है कि जेडीयू का बड़े भाई का दर्ज़ा छिनने की शुरुआत 2024 के लोकसभा चुनाव से ही हो गई थी. इसी तरह विधानसभा चुनाव की बात करें तो साल 2020 में जेडीयू 115 सीटों पर लड़ी जबकि बीजेपी 110 सीटों पर. इस चुनाव में जेडीयू तीसरे नंबर पर चली गई थी, इसके बावजूद नीतीश कुमार ही बिहार के मुख्यमंत्री बनें.
चिराग को 2020 का इनाम मिला हैएनडीए में सीट शेयरिंग का फ़ॉर्मूला घोषित होने से पहले लोजपा (आर) प्रमुख चिराग पासवान तल्ख़ तेवर अपनाए हुए थे.
चुनाव की घोषणा से पहले भी वो नीतीश सरकार के कामकाज़ और राज्य की बिगड़ती क़ानून व्यवस्था का सवाल उठाते रहे.
सीट शेयरिंग के वक़्त उनसे बातचीत करने का ज़िम्मा केंद्रीय मंत्री नित्यानंद राय को सौंपा गया था. 2024 के लोकसभा चुनाव में चिराग ने अपने हिस्से में आई पांचों सीट जीती थी और वो इस हिसाब से 30 सीट चाहते थे. यानी प्रति लोकसभा छह सीट.
सीट शेयरिंग का फ़ॉर्मूला देखें तो चिराग अपनी मांग मनवाने में कामयाब रहे. उन्हें 29 सीट मिली है.

वरिष्ठ पत्रकार रवि उपाध्याय बीबीसी से कहते हैं, "चिराग की पार्टी का संरचनात्मक ढांचा देखें तो उसमें ब्राह्मण से लेकर मुस्लिम तक ज़िम्मेदार पदों पर हैं. पहली बात तो ये है कि उनको पासवानों का नेता मानना ग़लत है. दूसरा ये कि पूरे एनडीए में चिराग जैसे कद का कोई युवा नेता नहीं है. ऐसे में बीजेपी एक ऐसे नेता को अपने साथ रखना चाहती है जो 2025 और 2030 के बाद भी उसके साथ रहे. यही वजह है कि बीजेपी चिराग पर निवेश कर रही है और उस पर दांव लगा रही है."
इस बीच ये भी ख़बरें आती रहती है कि चिराग पासवान पर बीजेपी ये दबाव बनाती रहती है कि वो अपनी पार्टी लोजपा (आर) का विलय बीजेपी में कर लें. लेकिन चिराग इससे लगातार इनकार करते रहे हैं.
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़ के पूर्व प्रोफ़ेसर पुष्पेन्द्र इसे दूसरे नज़रिए से देखते हैं. वो कहते हैं, " चिराग को बीते विधानसभा चुनाव में जेडीयू को तीसरे नंबर की पार्टी बनाने का इनाम मिला है. चिराग पासवान की ख़ुद की ताक़त नहीं है, ये पिछले विधानसभा चुनाव में साबित हो चुका है जब उनका सिर्फ़ एक उम्मीदवार जीता था."
"लेकिन चिराग जब एनडीए से मिलते हैं तो वो ताकतवर बन जाते हैं. अगर चिराग के पास अपनी ताकत है तो वो ताकत उनके चाचा पशुपति कुमार पारस के पास भी होनी चाहिए. चिराग की ताकत अभी बढ़ी हुई है लेकिन भविष्य में उनके स्वतंत्र अस्तित्व को ख़तरा हो सकता है क्योंकि बीजेपी का ये इतिहास रहा है कि वो अपनी सहयोगी पार्टियों को ख़त्म कर देती है जैसे अभी बिहार में जेडीयू ख़त्म हो रही है."
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बता दें कि बीते विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान ने अकेले 135 सीट पर चुनाव लड़ा था और सिर्फ़ एक सीट पर जीत दर्ज की थी.
विश्लेषक मानते हैं कि जेडीयू के तीसरे नंबर की पार्टी बनने की वजह चिराग पासवान ही थे.
विश्लेषक पुष्पेन्द्र कहते हैं, "जेडीयू के कार्यकर्ता निराश हैं और नेता भी अब अपना अपना रास्ता तलाश रहे हैं. क्योंकि नीतीश कुमार की अब सुनी नहीं जा रही है और शायद उनकी गिरती सेहत के हवाले से कहें तो वो कुछ सोचने समझने की स्थिति में भी नहीं हैं. ऐसे में सारा कंट्रोल बीजेपी के हाथ में है और जेडीयू के पास विरोध का कोई विकल्प नहीं है."
"जो भी बीजेपी कर रही है जेडीयू उसे स्वीकार कर रही है. और इसका मजबूत संकेत मंत्रिमंडल विस्तार में ही दिखने शुरू हो गए थे जब बीजेपी ने जेडीयू के वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश की थी. यानी अतिपिछड़ों और कुर्मी कोइरी को अपने कोटे से मंत्री बनाकर. उसी वक़्त लग गया था कि बिहार की पॉलिटिक्स में जेडीयू धीरे-धीरे अपनी प्रासंगिकता खो देगी."
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सीट शेयरिंग की घोषणा के बाद एनडीए गठबंधन में कहीं जोश तो कहीं कसक नज़र आ रही है. बीजेपी जहां इस फ़ॉर्मूले से खुश है और 'सौहार्दपूर्ण माहौल' में तय हुआ बता रही है, वहीं लोजपा (आर) सीट शेयरिंग में मिले हिस्से से खुश है.
जेडीयू में एक बड़ा हिस्सा हताश है लेकिन पार्टी प्रवक्ता नीरज कुमार ने एक बयान जारी कर कहा, "महागठबंधन को दरार दिख रही थी लेकिन हमारे एनडीए में तो नीतीश जी की निपुणता और मोदी जी के नेतृत्व में बेहतर सामंजस्य है. तेजस्वी तो राहुल गांधी के पॉलिटिकल ड्राइवर बन गए हैं. हमारे यहां तो नीतीश जी मुख्यमंत्री बनेंगे, ये क्लियर है लेकिन वहां तो मुख्यमंत्री का चेहरा ही तय नहीं है बल्कि डिप्टी सीएम बनने के लिए ही सब कूद रहे हैं."
एनडीए में 6-6 सीट पाने वाले राष्ट्रीय लोक मोर्चा के उपेंद्र कुशवाहा और हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा के जीतनराम मांझी नाराज़ हैं.
जीतनराम मांझी ने सीट बंटवारे के बाद पत्रकारों से कहा, "एनडीए का फ़ैसला हम मान रहे है लेकिन हमको सिर्फ़ 6 सीट देने से एनडीए को ही नुक़सान होगा."
वहीं उपेंद्र कुशवाहा ने भी सोमवार को सोशल मीडिया पर एक पोस्ट करके सीट बंटवारे से अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की है.
उन्होंने लिखा, "आज बादलों ने फिर साजिश की, जहां मेरा घर था वहीं बारिश की. अगर फ़लक को ज़िद है बिजलियां गिराने की, तो हमें भी ज़िद है वहीं पर आशियां बसाने की."
इधर महागठबंधन के लिए भी सीट शेयरिंग की राह आसान नहीं दिख रही. वीआईपी प्रमुख मुकेश सहनी ने बयान दिया था, "महागठबंधन थोड़ा अस्वस्थ हो गया है, दिल्ली में इसके डॉक्टर मौजूद हैं."
इस बीच पार्टियों ने अपने उम्मीदवारों को नॉमिनेशन करने के लिए भी कह दिया है और उम्मीदवार सोशल साइट्स के जरिए अपने नॉमिनेशन की तारीख भी सार्वजनिक कर रहे हैं.
साफ़ तौर पर इस बार दोनों ही गठबंधनों की राह आसान नहीं है.
बिहार में ये चुनाव निर्णायक होंगे क्योंकि इस चुनाव में जेडीयू की घटती हैसियत और नीतीश कुमार की सेहत की ख़बरों के बीच बिहार में नया नेतृत्व उभर सकता है. दो दशक तक नीतीश कुमार के इर्द गिर्द अपना भविष्य बुनने वाले जेडीयू की राजनीतिक शक्ति भी ये चुनाव तय करेगा.
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