आजकल अक्सर यह शोर सुनाई देता है कि स्त्रियों के हाथों मर्दों की ज़िंदगी ख़तरे में है. ख़ासकर ऐसा तब-तब होता दिख रहा है, जब-जब किसी मर्द की हत्या में उसकी पत्नी या साथी का हाथ होने का शक होता है. पिछले कुछ महीनों में ही ऐसी कई ख़बरें सामने आई हैं. देखते ही देखते ये ख़बर के माध्यमों और सोशल मीडिया में छा गईं.
ऐसी ख़बरों के बाद ऐसा माहौल बनाया जाता है, मानो हर तरफ़, हर स्त्री अपने पति या साथी की हत्या करने की ताक में बैठी है.
कुछ घटनाएँ याद करें. एक पुरुष का शव किसी नीले ड्रम में मिला. तो किसी की हत्या शादी के चंद दिनों बाद ही ख़ास जगह पर ले जाकर कर दी गई. या कहीं दावा किया गया कि किसी पुरुष को पत्नी ने शादी के बाद पहली ही रात में चाकू से धमका दिया.
इसके बाद इन घटनाओं को तरह-तरह के विशेषण से नवाज़ा गया. सोशल मीडिया पर दसियों पोस्ट या वीडियो आ गए. ये वीडियो घटना की गंभीरता बताने के लिए नहीं बल्कि मज़ाहिया ज़्यादा थे.
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फिर तो नीला ड्रम किसी पति को डराने का सामान बन गया. कई वीडियो और पोस्ट तो यही दिखाने के लिए सामने आए. यही नहीं, इससे ऐसा बताने की कोशिश की गई कि हर पत्नी धमका रही है और हर पति डरा-सहमा है.
हालाँकि, इनसे कोई डरा भले न हो, हँसा ज़रूर... क्योंकि ये चुटकुले ही थे. इसलिए इन पर गंभीर चर्चा होने की बजाय सतही तू-तू, मैं-मैं ज़्यादा हुई.
यही नहीं, ऐसा लगा मानो महिलाओं के ख़िलाफ़ बात करने का एक मज़बूत आधार मिल गया. कुछ लोग तो इस लहज़े में बात करते नज़र आए, देखिए हम कहते थे न.. महिलाएँ ऐसी ही होती हैं.
लेकिन क्या मामला इतना ही सीधा है? राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) और दूसरे स्रोतों से मिले आँकड़े यही बताते हैं कि हर उम्र में स्त्रियों को स्त्री होने की वजह से हिंसा झेलनी पड़ती है.. क्या मर्दों के साथ ऐसा होता है? नहीं न.
तो इससे एक और बात साफ़ हुई. हमारे घर-परिवार-समाज में स्त्रियों के साथ हिंसा सामान्य बना दी गई है. इसलिए उस पर तब तक नज़र नहीं जाती जब तक उसमें कुछ असमान्य या ख़ास न हुआ हो. वीभत्स न हो.
लेकिन मर्दों के साथ हिंसा चूँकि आम नहीं है, इसलिए छोटी-बड़ी हर घटना, बड़ी बनाकर पेश की जाती है. मानो पुरुष जाति का अस्तित्व ही ख़तरे में पड़ गया है.
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यह सच मानने से किसे गुरेज़ होगा कि महिलाएँ भी हिंसा करती हैं.
महिलाएँ उन्हीं विचार, मूल्यों और सामाजिक पैमाने के बीच परवरिश पाती हैं, जिनकी नींव में मर्दों की सत्ता या पितृसत्ता है. सत्ता और ताक़त का पैमाना ख़ास तरह की हिंसक मर्दानगी बनाती है. यही हिंसक और ज़हरीली मर्दानगी, जब चारों तरफ़ फैली हो तो इससे स्त्रियों का बच पाना कैसे मुमकिन है.
किसी को हर तरह से अपने क़ाबू में रखना, गाली देना या मारना या दबा कर रखना या किसी को अपने से नीचा समझना या हत्या कर देना.. ये ज़हरीली मर्दानगी की चंद निशानियाँ हैं. मर्द इन्हीं के सहारे सदियों से अपनी व्यवस्था चलाते आ रहे हैं. यानी ये सत्ता और ताक़त की निशानियाँ हैं.
तो कई स्त्रियाँ इसे ही सही या यही एक रास्ता मानकर इस सत्ता और ताक़त का इस्तेमाल करती हैं. वे भी हिंसा के अलग-अलग रूपों का सहारा लेती हैं.
स्त्री और मर्द पर होने वाली हिंसालेकिन क्या दोनों की हिंसा को एक तराज़ू पर तौला जा सकता है?
क़तई नहीं. एक की हिंसा की जड़ में ग़ैरबराबरी, भेदभाव, सत्ता और ताक़त का विचार है. इसने हिंसा की पूरी व्यवस्था बनाकर रखी है. यह व्यवस्था हिंसा के अलग-अलग रूपों को जायज़ या सामान्य बना देती है. इसीलिए हमें स्त्री पर होने वाली हिंसा आसानी से नहीं दिखती. उसे ग़लत मानने में भी अक्सर दिक़्क़त होती है. इसलिए उसे बार-बार दिखाना पड़ता है. बताना पड़ता है कि क़ानून की नज़र में यह ग़लत है.
दूसरी ओर, स्त्री की ओर से की गई हिंसा में ज़्यादातर ऐसा नहीं है. उसमें तात्कालिक कारण या व्यक्तिगत हित-लाभ की ख़्वाहिश ज़्यादा है. यही नहीं, कई बार वह पितृसत्तात्मक व्यवस्था से उपजे हालात का नतीजा भी है.
यही नहीं, जानलेवा हिंसा और अपराध की ऐसी घटनाओं में अक्सर उसके साथ एक या एक से ज़्यादा मर्द सहयोगी होते हैं. यानी मर्द की सक्रिय मदद के बिना ज़्यादातर हिंसक या जानलेवा घटना नहीं होती.
ये भी मुमकिन है, मर्द ही प्रेरक स्रोत हों.
यहाँ यह साफ़ करना ज़रूरी है कि यह बात स्त्री की हिंसा को जायज़ ठहराने के लिए नहीं, बल्कि समझने के लिए की जा रही है.
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यह बार-बार दोहराने वाली बात है कि हिंसा किसी के भी साथ, किसी भी रूप में हो... वह जायज़ नहीं हो सकती. मगर जब हम हिंसा को स्त्री हिंसा या पुरुष हिंसा के रूप में देखेंगे तो उसकी पड़ताल भी करनी होगी.
जैसे- पिछले दिनों स्त्री हिंसा की आई ख़बरों में एक तीसरे व्यक्ति का ज़िक्र बार-बार आता है. मीडिया में उस तीसरे व्यक्ति की पहचान 'प्रेमी' के रूप में की जाती है.
यहाँ ये सवाल उठना लाज़िमी हैं, क्या यह मुद्दा स्त्री के साथी चयन के हक़ से नहीं जुड़ा है? कहीं शादी-शुदा ज़िंदगी में जान लेने वाली हिंसा का रिश्ता इससे भी तो नहीं है?
हमारा परिवार या समाज आमतौर पर स्त्री के साथी चयन के हक़ को नहीं मानता. वह चाहता है कि स्त्री, उसी मर्द को अपना साथी चुने जिसे उसका परिवार उसके लिए चुनता है. यह अक़सर बेमेल जोड़ी की वजह बनती है. स्त्रियाँ इस जबरन लादे गए फ़ैसले के ख़िलाफ़ मज़बूती से खड़ी नहीं हो पातीं. नतीजा, इसका असर हिंसक और जानलेवा अलगाव के रूप में दिखता है. यह आपराधिक हिंसा, व्यक्तिगत है.
दूसरी ओर, इसके साथ यह याद दिलाना बेहद ज़रूरी है कि स्त्रियों द्वारा अपने पतियों या साथी के ख़िलाफ़ की जाने वाली हिंसा और स्त्रियों के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ है.
स्त्रियों के साथ होने वाली ज़्यादातर हिंसा... उसके स्त्री होने की वजह से होती है. यह बारीक़ लेकिन अहम फ़र्क़ है. जैसे- कन्या भ्रूण का गर्भपात, पढ़ने से रोकना, बलात्कार, दहेज़ के लिए हत्या… हिंसा का ये रूप स्त्री के साथ ही है. यह लड़कों या पुरुषों के साथ नहीं है. इस फ़र्क़ को अगर नहीं समझा जाएगा तो इसके इलाज भी सही नहीं होंगे
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हर तरह की हिंसा नाक़ाबिले बर्दाश्त है. अपराध है. अगर मर्द द्वारा स्त्री के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा ग़लत है तो स्त्री द्वारा पुरुषों के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा भी ग़लत है. इसलिए स्त्री मुद्दों पर काम करने वाला हर व्यक्ति हिंसा मुक्त समाज की बात करता है.
इसमें एक हिंसा के लिए 'न' और दूसरी तरह की हिंसा के लिए 'हाँ' की कोई गुंजाइश नहीं रहती. इसलिए अगर कोई समझता है कि स्त्रीवादी इस स्त्री की हिंसा की किसी रूप में हिमायती हैं तो वह ग़लत है.
हिंसा की जड़ पहचानें: दूसरी तरफ़ हम देखते हैं कि स्त्रियों के साथ होने वाली हिंसा के पक्ष में कई तर्क समाज ने गढ़ रखे हैं. समय-समय पर और घटना के हिसाब से उसका इस्तेमाल होता है. उसके लिए स्त्री होना ही, उसके साथ हिंसा की वजह बन जाती है. तो सबसे पहला पड़ाव यही है कि हिंसा की जड़ तलाशी जाए.
स्त्रियों का अस्तित्व है: स्त्रियों को आज़ाद शख़्सियत माना जाए और मानने की आदत डाली जाए. ज़िंदगी के भले-बुरे फ़ैसले लेने दिए जाएँ और उन फ़ैसलों की इज़्ज़त की जाए. चाहे वह फ़ैसला अपना संगी-साथी चुनने का ही क्यों न हो.
स्त्रियाँ हिंसा का सहारा न लें: स्त्रियों को भी यह समझने की ज़रूरत है कि अगर कुछ उनके ख़िलाफ़ हो रहा है तो वे बोलें. इनकार करें. उन्हें अपनी ज़िंदगी के बारे में तय करने का हक़ है... लेकिन अपनी ज़िंदगी के लिए उन्हें किसी की ज़िंदगी लेने का हक़ नहीं है. यह जुर्म है. जुर्म की सज़ा है. वे जुर्म करके अपनी ज़िंदगी ख़ुशनुमा नहीं बना सकतीं. इसलिए वे हिंसा को नकारें.
हर हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़: अगर कोलकाता के आरजी कर में बलात्कार की घटना न हो या दिल्ली में चलती बस में सामूहिक बलात्कार न हो तो क्या हम आज स्त्रियों के ख़िलाफ़ होने वाली हर हिंसा के बारे में इतना ही शोर-गुल मचाते हैं. एकदम नहीं. अगर हम वाक़ई हिंसा के ख़िलाफ़ हैं तो हर तरह की हिंसा के ख़िलाफ़ उतनी ही शिद्दत से आवाज उठाएँ.
डेटा इकट्ठा किए जाएँ: अपराध के रिकॉर्ड में पत्नियों द्वारा पुरुषों के साथ हिंसा अलग से दर्ज की जाए. इससे उस सच को समझने में मदद मिलेगी कि असल में सामूहिक रूप से किनकी ज़िंदगी हिंसा के साए में है.
और सबसे अहम बात, स्त्रियाँ को हिंसा के सभी रूपों को नकारना होगा. हिंसा का इस्तेमाल कर हिंसा मुक्त बराबरी का समाज नहीं बनाया जा सकता. वरना, उनके साथ होने वाली व्यापक हिंसा को यह मर्दाना समाज न सिर्फ़ नज़रंदाज़ करेगा बल्कि उसके ख़िलाफ़ माहौल भी बनाएगा. बना भी रहा है.
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