बिहार में विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है. पार्टियां जिताऊ उम्मीदवारों के गणित में लगी हुई हैं और राजनीतिक विश्लेषक इस चुनाव पर पैनी निगाहें बनाए हुए हैं.
राज्य में दो चरणों में 6 और 11 नवंबर को मतदान होगा, जबकि 14 नवंबर को नतीजे आएंगे.
इसी बीच बिहार में जो चुनाव आयोग ने स्पेशल इंटेंसिव रिविज़न (एसआईआर) कराया था उसका मामला भी सुप्रीम कोर्ट में आया.
कोर्ट ने फ़िलहाल कोई बड़ा आदेश देने के बजाय प्रभावित मतदाताओं को चुनाव आयोग में अपील करने के लिए कहा है.
इन घटनाक्रमों के बीच कई अहम सवाल बने हुए हैं कि ये चुनाव इससे पहले के चुनाव से कैसे अलग हैं? गठबंधनों की क्या ताक़त है?
क्यों विपक्ष बार-बार इसे नीतीश कुमार का आख़िरी चुनाव कह रहा है?
जनता क्या महागठबंधन पर भरोसा जताएगी या एनडीए पर उनका विश्वास अब भी बना हुआ है? जाति की भूमिका कितनी है?
प्रशांत किशोर क्या पारंपरिक किले भेद पा रहे हैं और महिलाएं क्या अब भी एक अलग वोट बैंक बनी हुई हैं?
'द लेंस' के इस एपिसोड में इन सभी मुद्दों पर चर्चा की गई. इस चर्चा में कलेक्टिव न्यूज़रूम के डायरेक्टर ऑफ़ जर्नलिज़्म मुकेश शर्मा के साथ शामिल हुए सी-वोटर के संस्थापक और चुनाव विश्लेषक यशवंत देशमुख, द इंडियन एक्सप्रेस की डिप्टी एडिटर लिज़ मैथ्यू और बिहार से बीबीसी संवाददाता सीटू तिवारी.
क्या असर दिखाएगा एमवाई समीकरण?बिहार चुनाव की बात जब भी आती है तो एमवाई समीकरण की सबसे ज़्यादा चर्चा होती है. एम यानी मुस्लिम और वाई मतलब यादव.
इस बार का एमवाई समीकरण पिछले चुनावों से अलग है. इस बार चुनाव में एम मतलब महिला और वाई मतलब युवा होने जा रहा है. इस बार का पूरा चुनाव इसी समीकरण पर सिमटने वाला है.
इस वोट बैंक को लेकर बिहार में अब तक की सबसे तीखी लड़ाई होती दिख रही है. जानकारों का मानना है कि इस बार का बिहार चुनाव कई मायनों में पिछले चुनावों से अलग होगा.
सी-वोटर के संस्थापक और चुनाव विश्लेषक यशवंत देशमुख कहते हैं कि अभी जब महिलाओं के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने योजनाएं लागू कीं तो उस समय बहुत लोगों ने इसे अन्य प्रदेशों में चल रही योजनाओं के साथ तुलना करने की कोशिश की. हालांकि इनमें बहुत अंतर है.
उन्होंने बताया, "नीतीश कुमार भारत के पहले ऐसे नेता और मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने महिलाओं को केंद्र में रखकर योजनाएं लाने की शुरुआत की थी और इसे लागू किया था. नीतीश कुमार का महिला मतदाताओं के साथ जुड़ाव बाकी सारे नेताओं से अलग है."
उनके मुताबिक़, "20 से 25 साल पहले जब उन्होंने विद्यालय की बच्चियों को साइकिलें बांटी, पोशाक बांटी, छात्रवृत्तियां दी और उनकी जिंदगी में बहुत बड़ा परिवर्तन लेकर आए. 20 साल बाद वो बच्चियां आज एक सक्रिय मतदाता हैं. उनके खाते में पैसा आने से भावनात्मक जुड़ाव और गहरा हो गया है. यह कोई नई या अफ़लातूनी योजना नहीं है जो चुनाव के ठीक पहले निकाली गई हो. ये वैसा नहीं है. ऐसे में इस पहलू पर बहुत ध्यान देना पड़ेगा."

यशवंत देशमुख का मानना है इस स्कीम के कारण इस चुनाव में मतदान के दौरान जितना बड़ा जेंडर गैप दिखाई देगा, उतना आज तक कभी दिखाई नहीं दिया होगा.
वह कहते हैं कि इसे काउंटर करने के लिए तेजस्वी यादव हर घर में सरकारी नौकरी देने की योजना का वादा लेकर आए हैं. ये बिहार के नौजवानों के बीच कितना असर करेगी, यह देखना बाकी है लेकिन पांच साल पहले इसने ज़बरदस्त रूप से असर दिखाया था.
वह बताते हैं कि पांच साल पहले सबसे बड़ा मुद्दा बेरोज़गारी का था और अंत के छह सप्ताह में इस मुददे पर जिस तरह से तेजस्वी यादव ने चुनाव प्रचार किया, उनका ग्राफ़ बढ़ता हुआ दिखाई दिया. इस बार भी चुनावी माहौल कुछ वैसा ही दिख रहा है.
यशवंत देशमुख कहते हैं, "एक तरफ़ महिलाओं के लिए योजनाएं हैं और दूसरी तरफ़ सरकारी नौकरी का वादा. यह नया एमवाई समीकरण पुराने एमवाई समीकरण पर भारी पड़ेगा."
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बिहार चुनाव में जातिगत समीकरण भी एक बड़ा चुनाव मसला है. यही वजह है कि महागठबंधन और एनडीए दोनों गठबंधन इस समीकरण को साधने में लगे हैं.
गठबंधन में सीटों को लेकर चल रही खींचतान के बीच जानकारों की नज़र इस पर है कि कौन-सा गठबंधन जातिगत समीकरण को बेहतर ढंग से साध पा रहा है.
'द इंडियन एक्सप्रेस' की डिप्टी एडिटर लिज़ मैथ्यू कहती हैं कि पिछले चुनावों के मुकाबले इस बार जातिगत समीकरण में बदलाव की संभावना दिख रही है.
इसके लिए वह तीन अलग-अलग कारण बताती हैं.
वह कहती हैं, "पहला, पिछले कई सालों में नीतीश कुमार ने योजनाओं और राजनीतिक सहभागिता देकर अति पिछड़ा वर्ग में अपना प्रभाव बनाया था, इस बार उनके स्वास्थ्य की स्थिति को देखते हुए वे संशय में हैं. दूसरा, कुशवाहा और दलित सहित कुछ अन्य समुदाय भी जोकि एनडीए के साथ थे वह भी हिल रहे हैं. तीसरा, राहुल और तेजस्वी के साथ आने से मुस्लिम और यादव का समीकरण फिर से मजबूत हुआ है."
उनके मुताबिक़, अगर जनसुराज पार्टी और एआईएमआईएम इस गठबंधन के वोट को नहीं तोड़ पाती हैं, तो एनडीए के लिए यह एक बड़ी चुनौती होगी.
दोनों गठबंधन में सीट बंटवारे को लेकर चल रही सियासत पर बिहार से बीबीसी संवाददाता सीटू तिवारी कहती हैं, "दोनों ही गठबंधन में वफ़ादारी पर महत्वाकांक्षा भारी पड़ती दिख रही है."
वह बताती हैं, "अगर एनडीए की बात करें तो बीजेपी पर यह जिम्मेदारी है कि वह लोजपा, उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी के बीच तालमेल बनाए. जेडीयू ने साफ़ कर दिया है कि यह बीजेपी की जिम्मेदारी है."
सीटू तिवारी बताती हैं कि लगता है कि नित्यानंद राय से मुलाकात के बाद चिराग पासवान को साध लिया गया है, जबकि उपेंद्र कुशवाहा अब 12 सीटों की मांग कर रहे हैं, पर बीजेपी उन्हें छह सीट देने को तैयार है.
मांझी 15 सीटों पर चुनाव लड़ना चाहते हैं, जबकि जेडीयू 105 सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती है. ऐसे में तालमेल बिठाना बड़ा मुश्किल हो रहा है.
सीटू तिवारी के मुताबिक़, अगर महागठबंधन की बात करें तो यहां सबसे ज़्यादा संशय मुकेश सहनी को लेकर है. मुकेश सहनी 60 सीटों की बात करते थे लेकिन अब कहा जा रहा है कि उनकी मांग 20 की हो गई है. गठबंधन के अन्य दल कह रहे हैं कि पिछली बार मुकेश सहनी की पार्टी 11 सीटों पर लड़ी थी, इसलिए इस बार उसे 12 से 15 सीटें दी जाएं.
सीटू तिवारी बताती हैं कि इस बार भाकपा माले 30 सीटों की मांग कर रही है. पिछली बार वह 19 सीटों पर चुनाव लड़ी और 12 सीटें जीती. जानकारी के मुताबिक उसे 25 सीटें दी जा सकती हैं. सीपीआई, जिसने छह सीटों पर चुनाव लड़ा था, अब 24 सीटें मांग रही है. इसी तरह, सीपीएम ने भी अधिक सीटों की मांग रखी है.
वह कहती हैं, "जहां तक बात कांग्रेस की है, उन्होंने 70 सीटों पर चुनाव लड़ा था. इस बार वह 60 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे. कांग्रेस की जल्द एक बैठक होगी जिसमें दूसरे चरण के उम्मीदवारों की सूची तय की जाएगी. कांग्रेस के एक नेता के मुताबिक, यह लिस्ट तेजस्वी यादव को दे दी जाएगी और अगर उम्मीदवार घोषित नहीं किए गए, तो कांग्रेस अपने प्रत्याशियों को नामांकन करने के लिए कह देगी."
क्या नीतीश कुमार का अंतिम चुनाव है?बिहार चुनाव में महिला और युवा इस बार अहम फैक्टर बन सकते हैं. इस चुनाव में महिलाओं का झुकाव नीतीश कुमार की तरफ दिख रहा है.
तेजस्वी यादव और प्रशांत किशोर इसे नीतीश कुमार का अंतिम चुनाव बता रहे हैं. अब सवाल यह है कि एनडीए का समीकरण क्या कह रहा है?
यशवंत देशमुख कहते हैं कि नीतीश कुमार की सेहत और उम्र को देखते हुए अगर कोई कहे कि यह उनका अंतिम चुनाव है, तो इसमें कुछ असामान्य नहीं है.
उन्होंने बताया, "हमारे आंकड़ों के मुताबिक नीतीश कुमार के लंबे शासनकाल से एक ऊब ज़रूर दिखती है, लेकिन जनता में उनके प्रति नाराजगी नहीं है. जंगलराज वाले मुद्दे पर लंबे समय तक राजनीति हुई, लेकिन अब दो-तिहाई मतदाता उस दौर के बाद पैदा हुए हैं. ऐसे में युवाओं को वह दौर याद नहीं, लेकिन बुजुर्गों और महिलाओं को वह समय आज भी याद है."
यशवंत देशमुख के मुताबिक, "यह पुराने नैरेटिव को छोड़कर नया नैरेटिव गढ़ने की लड़ाई है. इसमें प्रशांत किशोर अपनी भूमिका अदा कर रहे हैं. कितनी सीटें जीत पाएंगे और कितने वोट मिलेंगे, यह कहना अभी मुश्किल है. लेकिन हमारे ट्रैकर में जरूर पता लगा है कि पिछले छह महीनों में प्रशांत किशोर ने जबरदस्त रूप से ध्यान खींचा है."
उन्होंने कहा कि एक समय मुख्यमंत्री की पसंद में वह 20 फ़ीसदी से अधिक लोगों की पहली पसंद बने थे. वह जितना चर्चा में आए हैं, उसे कितने वोट और सीटों में बदल पाएंगे, यह देखना होगा.
यशवंत देशमुख कहते हैं, "नीतीश कुमार के मसले पर कुछ भी कहिए, उनके लिए बिहार की जनता के मन में जो सम्मान है, उसमें कोई कमी नहीं आई है. उनका ये अंतिम चुनाव माना जाए ये ना माना जाए ये प्रचार का हिस्सा हो सकता था. दो ध्रुवीय लड़ाई की जब बात आती है तो नीतीश कुमार के खाते में कई चीजें जुड़ जाती हैं लेकिन तेजस्वी के साथ ऐसा होता हुआ नहीं दिखाई देता है."
वह बताते हैं कि प्रशांत किशोर की बातें अब बिहार में गूंज रही हैं. बिहार में दोनों गठबंधन के हिस्से 70 से 75 प्रतिशत तक वोट गए हैं. अन्य के खाते में 20 से 30 फ़ीसदी तक वोट वैरी किए हैं. यानी बिहार का एक चौथाई वोट जातिगत राजनीति और ध्रुवीकरण से ऊपर उठकर वोट डालता है.
वह कहते हैं कि उन्हें लगता है, प्रशांत किशोर इसी वर्ग को टारगेट कर रहे हैं. प्रशांत किशोर युवाओं और माइग्रेंट्स का ध्यान खींचने में कामयाब दिखाई दे रहे हैं. प्रशांत किशोर इस चुनाव में कितना हासिल करते हैं, यह महत्वपूर्ण है. लेकिन इससे भी अहम यह होगा कि अगर वह इस चुनाव में लगातार सक्रिय रहे, तो 2030 का चुनाव उनके लिए निर्णायक साबित हो सकता है.
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पिछले विधानसभा चुनाव में तेजस्वी यादव ने वोट और सीटों के मामले में शानदार प्रदर्शन किया, हालांकि लोकसभा चुनाव में वह इसे दोहरा नहीं सके.
बिहार में भाजपा की ओर से सम्राट चौधरी और कुछ अन्य नाम चर्चा में हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि पार्टी यहां भी अन्य राज्यों की तरह नरेंद्र मोदी के चेहरे पर ही चुनाव लड़ रही है.
ऐसे में सवाल यह है कि शख्सियत के तौर पर एक तरफ तेजस्वी यादव और दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मतदाता कैसे देख रहे हैं?
लिज़ मैथ्यू कहती हैं कि बिहार में बीजेपी के तीन बड़े नेता हैं - दिलीप जायसवाल, सम्राट चौधरी और मंगल पांडे लेकिन पिछले कुछ महीनों में इन तीनों पर प्रशांत किशोर ने करप्शन का बड़ा आरोप लगाया है. बीजेपी अब तक आरजेडी के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के मुद्दे पर राजनीति करती रही है, लेकिन यह मुद्दा अब कमजोर पड़ गया है.
वह बताती हैं कि बिहार में बीजेपी का कोई बड़ा नेता नहीं है, इसलिए पार्टी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर ही निर्भर रहना होगा. पार्टी के लोग भी कहते हैं कि वह पीएम मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ेंगे. बीजेपी ने दूसरे राज्यों में भी ऐसा किया है, लेकिन वहां पार्टी के पास एक स्थानीय चेहरा मौजूद था. महाराष्ट्र में फडणवीस का चेहरा था, हरियाणा में सैनी का था और यूपी में योगी का है.
वह कहती हैं कि पिछले कुछ महीनों से तेजस्वी यादव की स्थिति मजबूत हुई है. राहुल गांधी ने जो रैली निकाली उसमें तेजस्वी भी थे और एमवाई का तेजस्वी को सपोर्ट मिल रहा है. लोकसभा में सीट बंटवारे में तेजस्वी ने गलती की थी और इसके कारण उनको नुकसान हुआ था. इस बार तेजस्वी यादव सीटों का बंटवारा किस तरह करते हैं, इस पर काफी कुछ निर्भर करेगा.
लिज़ मैथ्यू कहती हैं, "तेजस्वी अभी तक नीतीश कुमार की तरह नेता नहीं बने हैं कि वह सिर्फ़ अपने चेहरे पर चुनाव लड़ पाएं. तेजस्वी को जनता स्वीकार करती है, लेकिन लोकप्रियता में वह नीतीश कुमार से पीछे हैं. उन्हें लाभ यह है कि बीजेपी में नेता नहीं है. नीतीश कुमार के नेतृत्व पर थोड़ा शक है. ऐसे में उन्हें इसका लाभ मिलेगा."
वहीं लिज़ का कहना है कि चिराग पासवान की बात करें तो वह युवा वर्ग को कितना अपने पक्ष में ला पाएंगे, यह देखना होगा. अन्यथा उन्हें अभी काफ़ी मेहनत करने की ज़रूरत है.
बिहार चुनाव में एसआईआर कितना बड़ा मुद्दा?
बिहार चुनाव में स्पेशल इंटेंसिव रिवीज़न (एसआईआर) भी एक अहम मुद्दा बना हुआ है. सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुका यह मामला चुनाव में क्या असर डालेगा, यह देखने वाली बात होगी.
सीटू तिवारी बताती हैं कि 24 जून को एसआईआर की अधिसूचना जारी हुई और 30 सितंबर तक पूरी प्रक्रिया चली. इस मुद्दे की सबसे ज़्यादा गूंज तब सुनाई दी थी, जब राहुल गांधी ने 'वोटर अधिकार यात्रा' निकाली थी.
उन्होंने बताया कि अब इस मुद्दे को लेकर नाराज़गी कम हो गई है. हालांकि करीब 69 लाख वोटरों के नाम सूची से हटा दिए गए हैं. चुनाव आयोग ने इसकी अलग-अलग कैटेगरी बनाई है.
दूसरी अहम बात यह है कि संशोधित सूची ऑनलाइन तो जारी की गई है, लेकिन बूथों पर सार्वजनिक रूप से नहीं लगाई गई है. इसके कारण सभी लोग सूची नहीं देख पा रहे हैं.
वह बताती हैं कि एसआईआर को लेकर जो गुस्सा था, वह वोटर अधिकार यात्रा के दौरान अपने चरम पर था. इस समय इसे लेकर जमीनी स्तर पर कोई खास गुस्सा नहीं दिख रहा है.
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कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने तेजस्वी यादव के साथ मिलकर बिहार में 'वोटर अधिकार यात्रा' निकाली थी.
इसके साथ ही वोट चोरी के मुद्दे पर एक अभियान चलाया गया और उसका व्यापक प्रचार भी किया गया.
बिहार चुनाव में कांग्रेस के लिए यह अभियान कितना असरदार साबित होगा, इस पर विशेषज्ञों की अपनी एक राय है.
इस पर यशवंत देशमुख का कहना है कि यात्रा चलेगी, लेकिन मुद्दा नहीं. यात्रा उसी तरह चलेगी, जैसे भारत जोड़ो यात्रा चली थी, जिसका लाभ कांग्रेस को कई राज्यों में मिला था.
वह बताते हैं, "भारतीय राजनीति में जब-जब किसी नेता ने यात्रा निकाली, उसे लाभ मिला है. क्योंकि यात्रा का अर्थ है ज़मीन पर जाकर कार्यकर्ताओं और मतदाताओं से सीधा संवाद. इस लिहाज से यात्रा सफल रही."
वह कहते हैं कि बिहार चुनाव में ये मुद्दा नहीं चलेगा क्योंकि जहां जानकारी नहीं है वहां नाराजगी है. जैसे-जैसे लोग बूथ पर जाकर अपने नाम सूची में पाएंगे, यह मुद्दा समाप्त हो जाएगा.
वह यह भी कहते हैं कि अगर चुनाव आयोग ने ऐसे नाम काट दिए हैं, जिन्हें सूची में रहना चाहिए था, और यह मुद्दा सड़क पर उठ गया, तो यह सिर्फ़ बिहार तक सीमित नहीं रहेगा. ये मुद्दा फिर पूरे भारत में बीजेपी और चुनाव आयोग की किरकिरी कराएगा.
उन्होंने कहा कि अगर वास्तव में नाम कटे हैं, तो यह मुद्दा बीजेपी को राष्ट्रीय स्तर पर बहुत भारी पड़ेगा, बिहार तो छोड़ ही दीजिए. लेकिन अभी तक जो स्थिति दिख रही है. उससे यह दिखता नहीं है.
यशवंत देशमुख कहते हैं कि ऐसे में अगर नाम नहीं कटा है तो यह यात्रा सिर्फ़ संगठन के कैडर का मनोबल बढ़ाने के लिए तो उपयोगी है लेकिन यात्रा के कारण नया वोटर जुड़ जाएगा ऐसा होने वाला नहीं है.
चुनाव आयोग के लिए कितना अहम है ये चुनाव?स्पेशल इंटेंसिव रिवीज़न (एसआईआर) पर विवाद के बीच अब बिहार विधानसभा चुनाव पर सबकी नज़रें हैं. इसके बाद अब पश्चिम बंगाल में भी एसआईआर कराने के बाद चुनाव कराने की तैयारी है.
ऐसे में राजनीतिक दलों के साथ-साथ चुनाव आयोग के लिए भी बिहार चुनाव काफ़ी अहम हो गया है.
लिज़ मैथ्यू कहती हैं कि एसआईआर की प्रक्रिया के दौरान सभी आरोप चुनाव आयोग पर लगाए गए थे, इसलिए आयोग इस समय दबाव में है.
पश्चिम बंगाल और केरल ने इस प्रक्रिया का विरोध किया है, जबकि असम का कहना है कि राज्य में पहले ही एनआरसी हो चुका है, इसलिए इसकी ज़रूरत नहीं है.
वह कहती हैं, "आयोग के हर कदम पर सबकी नज़र रहेगी. बिहार चुनाव में ज़रा-सी भी गड़बड़ी की जिम्मेदारी उसी पर आएगी. इस बार आयोग की पूरी साख दांव पर है. आयोग को अपनी स्वायत्तता और ईमानदारी साबित करने के लिए इस बार काफी मेहनत करनी होगी."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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