बचपन से ही रॉबर्ट क्लाइव की छवि एक शरारती और हिंसक बच्चे की थी. सात साल का होते-होते उन्हें लड़ने की एक तरह से लत-सी लग गई थी. नम्रता, उदारता और धैर्य कुछ ऐसे गुण थे जिनसे क्लाइव का ताउम्र कोई वास्ता नहीं रहा.
ब्रिटिश इतिहासकार जॉर्ज फॉरेस्ट ने अपनी किताब 'द लाइफ़ ऑफ़ लॉर्ड क्लाइव' में लिखा, "किशोर होते-होते क्लाइव एक तरह का बाल अपराधी बन चुका था."
"वो अपने गाँव में परेशान व्यापारियों के लिए एक प्रोटेक्शन रैकेट चला रहा था. उसका कहना न मानने वाले व्यापारियों की दुकानों में पानी भरवा देना उसका ख़ास शग़ल हुआ करता था."
17 साल की उम्र होते-होते क्लाइव के पिता रिचर्ड क्लाइव को अंदाज़ा लग चुका था कि उन पर नियंत्रण रखना उनके बस की बात नहीं है.
सौभाग्य से ईस्ट इंडिया कंपनी के एक निदेशक से उनकी पहचान थी.
उनकी सिफ़ारिश पर रॉबर्ट 15 दिसंबर, 1742 को पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी के दफ़्तर गया जहाँ उन्हें राइटर यानी क्लर्क की नौकरी पर रख लिया गया.
तीन महीने बाद उन्होंने एक पानी के जहाज़ से भारत का रुख़ किया.
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क्लाइव का भारत तक का सफ़र बहुत परेशानी वाला रहा. रास्ते में वो जहाज़ से समुद्र में गिर गए और डूबते-डूबते बचे. संयोग से एक नाविक की नज़र उनके ऊपर पड़ गई और उसने उन्हें डूबने से बचा लिया.
मद्रास पहुंच कर क्लाइव एकाकी और नीरस जीवन जीने लगा. कभी-कभी वह अपने साथियों के साथ लड़ बैठते.
एक बार उन्होंने फोर्ट सेंट जॉर्ज के सचिव के साथ इतना बुरा व्यवहार किया कि गवर्नर ने उन्हें सबके सामने माफ़ी माँगने के लिए कहा.
विलियम डेलरिंपल अपनी किताब 'द अनार्की' में लिखते हैं, "जल्द ही क्लाइव को भारत के प्रति नफ़रत हो गई जिसने जीवन भर उसका साथ नहीं छोड़ा. भारत में एक साल बिताने के बाद उसने अपने घर पत्र लिख कर कहा कि मैंने अपना देश छोड़ने के बाद एक भी ख़ुशी का दिन नहीं बिताया है."
"वो इस हद तक अवसाद में चला गया कि उसने एक बार आत्महत्या करने की कोशिश की."
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कीथ फ़ीलिंग अपनी किताब 'वॉरेन हैस्टिंग्स' में लिखते हैं, "क्लाइव को भारत में कभी भी कोई दिलचस्पी नहीं रही. उसे यहाँ की सुंदरता ने कभी प्रभावित नहीं किया.. न ही उसमें यहाँ के इतिहास, धर्म और प्राचीन सभ्यता के बारे में जानने की कोई इच्छा पैदा हुई. यहाँ के लोगों के बारे में उसकी कोई जिज्ञासा नहीं थी. वह भारतीय लोगों को हिकारत की नज़र से देखता था."
लेकिन क्लाइव में अपने प्रतिद्वंद्वी की क्षमता को भाँपने और मौक़े का फ़ायदा उठाने की क्षमता शुरू से थी. जोखिम उठाने का दुस्साहस भी उनमें शुरू से ही था.
बिना परिणाम की परवाह किए हुए बहादुरी दिखाने का गुण भी उनके पास था. सन 1746 में फ़्रांस के मद्रास पर हमले और जीत के बाद उनका ये गुण लोगों के सामने आया था.
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जब फ़्रेंच जनरल ज़ुप्लेक्स ने मद्रास पर क़ब्ज़ा किया था तो क्लाइव वहाँ पर ही थे. वो रात में भेष बदल कर फ़्रेंच सिपाहियों को चकमा देते हुए शहर से बाहर निकल आए और पैदल चलते हुए कोरोमंडल तट पर एक छोटे ब्रिटिश ठिकाने फोर्ट सेंट डेविस तक पहुंच गए थे.
यहाँ पर उन्हें 'ओल्ड कॉक' के नाम से मशहूर स्ट्रिंगर लॉरेंस ने लड़ने के लिए प्रशिक्षित किया. लॉरेंस पहला व्यक्ति था जिसने क्लाइव की प्रतिभा को पहचाना.
1740 के दशक में ज़ुप्लेक्स अपनी सैनिक टुकड़ियों को नवाबों की सेवा में भेज रहा था, क्लाइव अपने सैन्य गुणों की वजह से लेफ़्टिनेंट के पद तक पहुंच गए थे. इसी समय फ़्रेच सैनिकों की नक़ल करते हुए लॉरेंस और क्लाइव ने अपने सैनिकों को भी ट्रेन करना शुरू कर दिया था.
शुरू में ईस्ट इंडिया कंपनी के पास मात्र कुछ सौ सैनिक थे. उनके पास ढंग की वर्दी तक नहीं हुआ करती थी. सन 1750 के दशक के मध्य में क्लाइव ने अपने पिता को भेजे पत्र में लिखा था, 'उन दिनों युद्ध की कला में हम कितने नौसिखिया हुआ करते थे.'
26 अगस्त, 1751 को क्लाइव ने पहली बार नाम कमाया जब उन्होंने मूसलाधार बारिश के बीच कर्नाटक के नवाब की राजधानी आरकोट की घेराबंदी में राहत देने के लिए 200 अंग्रेज़ और 300 भारतीय सिपाहियों के साथ कूच किया.
सर पैंड्रल मून ने अपनी किताब 'द ब्रिटिश कॉन्क्वेस्ट एंड डॉमिनियन ऑफ़ इंडिया' में लिखा, "क्लाइव ने आँधी-तूफ़ान के बीच हमला कर फ़्रेंच सैनिकों और उनके साथियों को अचंभे में डाल दिया. इस जीत से पहली बार आभास मिला कि ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में एक सफल सैनिक अभियान भी चला सकती है. कंपनी का आत्मविश्वास बढ़ाने में इस जीत का बहुत बड़ा योगदान था. एक सैनिक के रूप में गति और आश्चर्य का इस्तेमाल उसकी पसंदीदा रणनीति रही."
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क्लाइव की सबसे बड़ी सफलता 1752 में आई जब उन्होंने मद्रास पर होने वाले हमले को नाकाम किया. उन्होंने और स्ट्रिंगर लॉरेंस ने मिलकर नवाब मोहम्मद अली को हराकर आरकोट और तिरुचिरापल्ली पर जीत हासिल की, 13 जून 1752 को फ़्रेंच कमांडर ने क्लाइव के सामने आत्मसमर्पण कर दिया.
क्लाइव ने कुल मिलाकर 85 फ़्रेंच और 2000 भारतीय सैनिकों को बंदी बनाया. सर पैंड्रल मून ने लिखा, "इस जीत से ज़ुप्लेक्स की महत्वाकांक्षा के गहरा धक्का लगा. जब उसने ये ख़बर सुनी तो वो अपना भोजन नहीं कर सका."
"कुछ ही दिनों बाद उसको बर्ख़ास्त कर दिया गया और वो अपमानित होकर फ़्रांस वापस लौटा. इसके विपरीत क्लाइव का हीरो के तौर पर मद्रास में स्वागत किया गया."
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इस कामयाबी के लिए क्लाइव को न सिर्फ़ क्वार्टर-मास्टर का पद दिया गया बल्कि 40 हज़ार पाउंड इनाम में भी दिए गए.
23 मार्च, 1753 को क्लाइव और उनकी पत्नी बॉम्बे कैसल जहाज़ पर इंग्लैंड के लिए रवाना हुए. लंदन पहुंचकर उन्होंने तुरंत परिवार के क़र्ज़ों को चुकाया. उन्होंने ब्रिटिश संसद का सदस्य बनने की भी कोशिश की लेकिन उसका राजनीतिक करियर उड़ान नहीं भर पाया.
फ़्रेंच हमले की संभावना को देखते हुए उन्हें एक बार फिर भारत बुलाया गया. इस बार क्लाइव को मद्रास के डिप्टी गवर्नर के पद के साथ-साथ सेना में लेफ़्टिनेंट कर्नल का पद भी दिया गया.
जब बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला ने सन 1756 में कलकत्ता में फ़ोर्ट विलियम पर क़ब्ज़ा कर लिया तो 16 अगस्त को इसकी ख़बर मद्रास पहुंची. उसी समय रॉबर्ट क्लाइव एडमिरल वॉटसन के पोतों के बेड़े के साथ कोरोमंडल के तट पर पहुंचे. उनको संभावित फ़्रेंच हमले का मुकाबला करने के लिए तैयार किया गया था लेकिन क्लाइव ने ज़ोर दिया कि बंगाल में कंपनी के सामने आई चुनौती का सामना करना ज़्यादा ज़रूरी है.
दो महीने की तैयारी के बाद 785 अंग्रेज़ सैनिक, 940 भारतीय सिपाही और 300 नौसैनिक समुद्र के रास्ते कलकत्ता के लिए रवाना हुए.
इस बेड़े का पहला पोत 9 दिसंबर को कलकत्ता पहुंच पाया. तब तक क्लाइव के आधे सैनिक बीमारियों की वजह से दम तोड़ चुके थे. तीन जनवरी को क्लाइव ने सिराजुद्दौला के ख़िलाफ़ युद्ध की घोषणा कर दी.
ये पहला मौक़ा था जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने किसी भारतीय राजा के ख़िलाफ़ युद्ध का औपचारिक ऐलान किया था. उन्होंने पहले हुगली के घाटों को लूटा और फिर फ़ोर्ट विलियम के आसपास के इलाकों पर कब्ज़ा किया. सिराजुद्दौला ने क्लाइव के पास अपना शांति दूत भेजा.
नौ फ़रवरी को अलीनगर के समझौते पर दस्तख़त हुए जिसने कंपनी के पुराने अधिकार फिर से बहाल कर दिए. अगले दिन सिराजुद्दौला ने वापस मुर्शिदाबाद का रुख़ किया लेकिन 13 जून को क्लाइव ने सिराजुद्दौला को पत्र लिखकर चेतावनी दी कि उन्होंने अलीनगर समझौते की शर्तों को तोड़ना शुरू कर दिया है.
उसी दिन क्लाइव ने 800 अंग्रेज़ और 2200 दक्षिण भारतीय सैनिकों के साथ पलासी की तरफ़ मार्च करना शुरू कर दिया.
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23 जून, 1757 को सुबह आठ बजे पलासी की लड़ाई में पहला गोला दाग़ा गया. पलासी मुर्शिदाबाद के दक्षिण में करीब 50 किलोमीटर दूर एक क़स्बा था. ये गोला सिराज के सैनिकों की तरफ़ से दाग़ा गया था. क्लाइव को इससे थोड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि उनके जासूसों ने उन्हें ख़बर दी थी कि सिराज के सैनिकों के पास कोई तोप नहीं है.
शुरुआती नुक़सान झेलने के बाद क्लाइव ने अपने सैनिकों को थोड़ा पीछे हटा लिया. दोपहर के आसपास आसमान के बादल घने होने लगे, बिजली कड़कने लगी और युद्ध-क्षेत्र में एक बड़ी आँधी आ गई. थोड़ी देर में सूखी ज़मीन कीचड़ में बदल गई.
विलियम डेलरिंपल लिखते हैं, "कंपनी के सैनिकों ने तिरपाल फैला कर अपने बारूद और तोपों को बारिश से बचाए रखा. बारिश शुरू होने के दस मिनट के अंदर गीली हो जाने के कारण सिराज की सभी तोपें शांत हो गईं. ये सोचकर कि कंपनी की तोपें भी अक्षम हो गई होंगी नवाब के कमांडर मीर मदन ने अपने सैनिकों को आगे बढ़ने का आदेश दिया."

लड़ाई का आगे का वर्णन करते हुए ग़ुलाम हुसैन ख़ाँ अपनी किताब 'सैर मुताख़रीन' में लिखते हैं, "तोप के गोले चलाने में अंग्रेज़ सैनिकों का कोई सानी नहीं था. उनमें अनुशासन के साथ-साथ तेज़ी भी थी."
"उन्होंने गोलों और गोलियों की ऐसी बरसात की कि सिराज के सैनिक आश्चर्य से उन्हें खड़े देखते ही रह गए. तोपों की आवाज़ से उनके कान फट गए. गोलों से पैदा हुई रोशनी से उनकी आँखें चौंधिया गईं."
सिराज के बहुत से सैनिक मारे गए. मारे गए सैनिकों में सिराज की सेना का कमांडर मीर मदन भी था. वो अपने सैनिकों को आगे बढ़ने के लिए उत्साहित कर रहा था, तभी एक गोला उसके पेट में आकर लगा और उसने वहीं दम तोड़ दिया.
ये दृश्य देखकर सिराजुद्दौला की सेना में हताशा फैल गई.
वो मीर मदन का शव लेकर तंबुओं में घुस गए. दोपहर होते-होते उन्होंने तंबू भी छोड़ दिए और उन्होंने वहाँ से भागना शुरू कर दिया.
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उसी समय क्लाइव के डिप्टी मेजर किलपैट्रिक ने आगे बढ़कर उन ठिकानों पर क़ब्ज़ा करना शुरू कर दिया जिन्हें सिराज के सैनिकों ने छोड़ा था.
क्लाइव ने किलपैट्रिक को बिना आदेश मिले आगे बढ़ने की अनुमति नहीं दी थी. जब क्लाइव को इसकी सूचना मिली तो उसने गुस्से में किलपैट्रिक को संदेश भिजवाया कि वो उसे आदेश न मानने के आरोप में गिरफ़्तार करवा देगा लेकिन किलपैट्रिक के आदेश न मानने की ज़िद ही ने क्लाइव को जीत दिलवाई.
सिराज की सेना ने लड़ाई का मैदान छोड़ दिया. शुरू में लगा कि वह बस पीछे हट रहे हैं लेकिन थोड़ी देर बाद उसमें भगदड़ मच गई.
क्लाइव ने अपनी प्रारंभिक रिपोर्ट में लिखा जो कि अब तक राष्ट्रीय अभिलेखागार में सुरक्षित है, "हमने दुश्मन का छह मील तक पीछा किया. वो अपने पीछे 40 तोपें छोड़ गए थे, सिराजुद्दौला ऊँट पर सवार होकर वहाँ से बच निकला और अगली सुबह मुर्शिदाबाद पहुंचा."
पलासी में जीत के साथ ही ईस्ट इंडिया कंपनी एक बड़ी सैनिक शक्ति के रूप में उभरी और भारत में अंग्रेज़ी शासन की नींव पड़ी.
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क्लाइव को 27 जून 1757 को मुर्शिदाबाद में प्रवेश करना था लेकिन उनको जगत सेठ ने आगाह कर दिया कि वहाँ उनकी हत्या की जा सकती है, इसलिए क्लाइव 29 जून को वहाँ पहुंचे.
सर पैंड्रल मून लिखते हैं, "मीर जाफ़र ने क्लाइव को मसनद पर बैठाया. वहीं क्लाइव ने सार्वजनिक रूप से कहा कि कंपनी उनके प्रशासन में दख़लंदाज़ी नहीं करेगी और सिर्फ़ व्यापार पर ही अपना ध्यान केंद्रित करेगी."
मुर्शिदाबाद के ख़ज़ाने में सिर्फ़ डेढ़ करोड़ रुपये थे जो कि क्लाइव की उम्मीद से कम निकले. विलियम डेलरिंपल ने लिखा, "इस अभियान में क्लाइव को निजी तौर पर दो लाख 34 हज़ार पाउंड का इनाम मिला. इसके अलावा उनको एक जागीर भी दी गई जिससे होने वाली आमदनी 27 हज़ार पाउंड सालाना थी. 33 साल की उम्र में क्लाइव अचानक यूरोप का सबसे धनवान शख़्स बन गया."
जब क्लाइव इंग्लैंड पहुंचे तो उनका हीरो की तरह स्वागत किया गया. बाद में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बनने वाले विलियम पिट ने उन्हें 'स्वर्ग में पैदा होने वाले जनरल' की संज्ञा दी.
सन 1761 में क्लाइव ने श्रूसबरी से संसद का चुनाव लड़ा और जीत हासिल की. दो साल बाद उन्हें 'नाइट' की पदवी से सम्मानित किया गया.
इसके बाद ईस्ट इंडिया कंपनी के अनुरोध पर क्लाइव को एक बार फिर गवर्नर और इसके सैन्यबलों का कमांडर बनाकर कलकत्ता भेजा गया. क्लाइव मई, 1765 में कलकत्ता पहुंचे.
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सन 1767 में क्लाइव ने भारत छोड़ा और एक बार फिर इंग्लैंड का रुख़ किया. वहाँ सन 1773 में हाउस ऑफ़ कॉमंस की तरफ़ से उनके ख़िलाफ़ कुप्रशासन और भ्रष्टाचार के आरोपों के लिए जाँच बैठाई गई.
वहाँ पर क्लाइव ने अपने भाषण में ख़ुद के साथ मामूली 'भेड़ चोर' की तरह व्यवहार किए जाने पर सख़्त ऐतराज़ दिखाया.
उन्होंने कहा, "पलासी के बाद एक बड़ा राजकुमार मेरी ख़ुशी पर निर्भर था. एक समृद्ध शहर मेरी दया के सहारे चल रहा था. वहाँ के अमीर बैंकर मेरी एक मुस्कान भर पाने के लिए एक दूसरे से स्पर्धा कर रहे थे. सोने और रत्नों से भरा ख़ज़ाना मेरे लिए खोल दिया गया था. मिस्टर चेयरमैन मैं ख़ुद अपने संयम को लेकर चकित हूँ."
क्लाइव ने दो घंटे तक अपनी वकालत की. आख़िर में उन्होंने वो मशहूर पंचलाइन कही, "आप मेरी धन-दौलत ले सकते हैं लेकिन मेरे सम्मान को तो बख़्श दीजिए."
जब वो कमरे से बाहर निकले तो उनकी आँखों में आँसू थे. पूरी रात चली कार्रवाई के बाद क्लाइव के ख़िलाफ़ लगे सभी आरोप वापस ले लिए गए और उनके पक्ष में 155 वोट पड़े जबकि उनके ख़िलाफ़ 95 सदस्यों ने वोट दिया.
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इस जाँच में क्लाइव को बरी तो कर दिया गया लेकिन उन्हें मानसिक शांति नहीं मिली.
अपनी संपत्ति का आनंद उठाने के लिए उनके पास अधिक समय भी नहीं बचा था.
दिनों-दिन उनका स्वास्थ्य ख़राब होता चला गया और जैसे-जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी की करतूतों की ख़बर इंग्लैंड पहुंची, वहाँ का जनमत उनके खिलाफ़ होता चला गया.
22 नवंबर, 1774 को सिर्फ़ 49 वर्ष की आयु में रॉबर्ट क्लाइव ने आत्महत्या कर ली.
उन्होंने कोई सुसाइड नोट नहीं छोड़ा. रात के अँधेरे में उन्हें गुप्त रूप से एक क़ब्र में दफ़नाया गया. उनकी क़ब्र पर कोई शिलालेख नहीं लगाया गया.
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