6-7 मई की वह दरमियानी रात जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा (एलओसी) के पास, खासकर पुंछ और कुपवाड़ा जिलों के बाशिंदों को एक बार फिर आतंक के साये में धकेल देने वाली रात थी।
पुंछ में सीमा पार से भारी गोलाबारी में कम-से-कम 13 लोग मारे गए और 60 से ज्यादा घायल हो गए, जिनमें से कई की हालत गंभीर है। मृतकों में एक महिला समेत तीन सिख भी शामिल हैं।
‘संडे नवजीवन’ से बात करते हुए एक पीड़ित के भाई सुरजन सिंह ने कहा, “हमारे इलाके में सारी रात गोलियां और मोर्टार के गोले बरसते रहे। ये घरों, इमारतों, पेड़ों और वाहनों पर गिर रहे थे...बहुत तेज आवाज कर रहे थे…हम सब डरे हुए थे। हममें से कोई भी एक पल के लिए भी सो नहीं सका। सुबह एक गोला हमारे घर की खिड़की से टकराकर फटा। मेरे भाई अमरजीत सिंह, जो एक पूर्व सैन्य अधिकारी थे, के सीने पर छर्रे लगे। हम उन्हें अस्पताल लेकर भागे, लेकिन जल्द ही उनकी मौत हो गई।”
स्थानीय गुरुद्वारा प्रबंधक समिति के कर्ता-धर्ताओं में से एक सुरजन बताते हैं, “उस गोले ने सिर्फ हमारा घर ही नहीं तबाह किया, हमारे परिवार को भी बुरी तरह तोड़ दिया। मेरे दिवंगत भाई अपने पीछे 80 साल की उम्र वाले हमारे बुजुर्ग माता-पिता, असमय विधवा हुई अपनी पत्नी, एक चौदह वर्षीय बेटा और छह वर्षीय बेटी को छोड़ गए हैं।” वह कहते हैं, “यहां तक कि सीमा पार से दागे गए गोले ने हमारे गुरुद्वारे को भी नुकसान पहुंचाया है।”
यह विध्वंस 6-7 मई की देर रात उस वक्त सामने आया, जब भारतीय सशस्त्र बलों ने ऑपरेशन सिंदूर छेड़ा, जिसमें पाकिस्तान और पीओके (पाक अधिकृत कश्मीर) के नौ स्थानों के आतंकी शिविरों को निशाना बनाया गया था।
पुंछ स्थित पत्रकार इशरत भट ने ‘संडे नवजीवन’ से कहा, “सीमा पार से गोलाबारी होना कोई नई बात नहीं, लेकिन उस रात का अहसास बिलकुल अलग था- यह कहीं ज्यादा भयावह था और इससे होने वाली मौतें भी ज्यादा विनाशकारी थीं।”
कुपवाड़ा जिले के करनाह और तंगधार सेक्टर के बाशिंदे भी ऐसे ही भयावह मंजर से रू-ब-रू हुए। हालांकि जान-माल का कोई नुकसान नहीं हुआ, लेकिन पाकिस्तान की ओर से हुई फायरिंग और गोलाबारी से कई घर, दुकानें, सरकारी इमारतें और वाहन नष्ट हो गए। पत्रकार और करनाह निवासी इश्फाक सईद के अनुसार, “करनाह सेक्टर में, तोपखाने की गोलाबारी में आठ घर और चार वाहन जलकर राख हो गए। पाकिस्तानी सेना की गोलाबारी के कारण सौ से ज्यादा घरों और कई मस्जिदों में दरारें पड़ गई हैं।”
एक सेवानिवृत्त हाई स्कूल शिक्षक रफ़ी अहमद ने अपना दर्द इस तरह साझा किया, “यह सब किसी बुरे सपने जैसा था। हम में से कम-से-कम तीस लोग, जिनमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे, ने वह भयावह रात एक भूमिगत बंकर में बिताई। यह गांव का एक साझा आश्रय स्थल है, जहां ऐसी आपात स्थितियों में कई परिवार शरण ले सकते हैं। गोलाबारी की आवाज हमारे दिलों को चीर रही थी, हमारी धड़कनें बढ़ती जा रही थीं, हम बुरी तरह डरे हुए थे। डर लगातार बढ़ता जा रहा था और हम पूरी रात जागते रहे।”
दर्द से थरथराती आवाज़ में रफ़ी कहते हैं, “11 नवंबर 1999 की वह भयावह रात याद आ गई, जब मैंने अपना परिवार, अपनी पूरी दुनिया खो दी थी... जब सीमा पार से दागा गया मोर्टार शेल मेरे घर पर आकर गिरा और मेरी मां, मेरी पत्नी, मेरी साढ़े पांच साल की बेटी और मेरे छोटे बेटे की मौत हो गई। नियंत्रण रेखा पर यह गोलाबारी भयावह है... मैं अपने चार प्रियजनों को दफना चुका हूं।”
नियंत्रण रेखा पर दोनों सेनाओं के बीच अतीत में हुई मुठभेड़ों की भयावहता याद करते हुए कई अन्य लोग भी उस माहौल में पहुंच जाते हैं। करनाह और तंगधार जैसे क्षेत्रों के तमाम बाशिंदों ने दशकों से चले आ रहे इस संघर्ष का खामियाजा भुगता है।
सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक अब्दुल रशीद लोन इन्हीं में से एक हैं। हमसे बताते हैं, “हम तो उसी दिन से मौत और तबाही का मंजर झेल रहे हैं, जब 1948 में जम्मू और कश्मीर को एलओसी नामक इस अस्वाभाविक रेखा के जरिये बांटा गया था। इस रेखा ने न सिर्फ जमीन बांटी, परिवारों को भी बांट दिया। इन सारे वर्षों में दोनों तरफ के लोगों ने अकल्पनीय तकलीफ और नुकसान झेला है। इस बोझ को ढोते-ढोते हम बूढ़े हो गए।”
60 साल पहले भारत और पाकिस्तान के बीच के खूनी युद्ध का दौर याद करते हुए लोन कहते हैं, “मुझे 1965 का युद्ध अच्छी तरह याद है। तब मेरी उम्र 18 साल थी। उन दिनों सेना की अग्रिम चौकियों तक जाने के लिए कोई सड़क नहीं थी। वे गोला-बारूद और अन्य जरूरी सामान चौकियों तक पहुंचाने के लिए बेगार (जबरन मजदूरी) के तौर पर हमें ले जाते थे। सीमा के दूसरी तरफ के लोगों के लिए भी ऐसे ही हालात थे।”
सीमावर्ती इलाकों में रहने वाले लोग ही दो पड़ोसियों के बीच दशकों से चली आ रही इस दुश्मनी को झेल रहे हों, ऐसा भी नहीं है । जम्मू-कश्मीर में लगभग हर किसी के पास नुकसान और दर्द की अपनी कहानी है। वरिष्ठ पत्रकार यूसुफ जमील ने 8 मई की सुबह अपने फेसबुक वॉल पर लिखा, ‘(6-7 मई की रात) श्रीनगर के लोग एक बहुत बड़े धमाके और अचानक ऊपर से उड़ते लड़ाकू विमानों की तेज आवाज से जाग गए। हमें जल्द ही पता चल गया कि भारत ने ऑपरेशन सिंदूर शुरू कर दिया है और पाकिस्तान ने जवाबी कार्रवाई करने की कसम खाई है। मैंने अपनी पहली कॉपी लिखने के लिए जानकारी जुटानी शुरू कर दी।’
उन्होंने कहा, ‘1965 में जब बच्चा था और 1971 में, जब स्कूल में था, मैंने दो दक्षिण एशियाई पड़ोसियों के बीच की सक्रिय शत्रुता देखी है। मैंने कारगिल में यह होते देखा है... और एक बार फिर से इसे देखने जा रहा हूं... मैं तीन दशकों से अधिक समय तक तबाही का गवाह रहा हूं और भारी मन से इसकी रिपोर्टिंग भी की है... और, लोग कहते हैं कि “आप भाग्यशाली हैं कि आप जन्नत-ए-नज़ीर (धरती पर स्वर्ग) में रहते हैं”।’
प्रसिद्ध संपादक और राजनीतिक टिप्पणीकार ताहिर मोहिउद्दीन का मानना है कि संघर्ष और उसके नतीजे अभी जारी रहेंगे। वह कहते हैं, “मुझे नहीं लगता कि यह मुसीबत जल्द खत्म होने वाली है। पाकिस्तानी सेना का अस्तित्व ही भारत के साथ दुश्मनी पर टिका है। अपने अस्तित्व को सही ठहराने के लिए वे इस कथित खतरे को बनाए रखते हैं और हथियारों तथा युद्ध तंत्र पर करदाताओं के पैसे का भारी हिस्सा उड़ाते रहते हैं।”
उनका मानना है कि अगर कश्मीर मसला हल हो जाता है, तो पाकिस्तानी सेना का अपना वजूद ही खत्म हो जाएगा। “इसी तरह, भारत की मौजूदा सरकार ने पाकिस्तान के प्रति दुश्मनी की भावना को बढ़ावा देकर अपने मतदाता आधार को बरकरार रखा है। पार्टी मौजूदा संघर्ष, पाकिस्तान की आक्रामकता और सीमा पार आतंकवाद के लिए उसके समर्थन से राजनीतिक और चुनावी लाभ लेना जारी रखे हुए है। वे भला इस स्थिति को क्यों समाप्त करना चाहेंगे?”
अफसोस की बात है कि सीमा पर रहने वाले लोगों के लिए, पिछले दस दिनों से चल रही गोलीबारी और गोलाबारी के खत्म होने की कोई उम्मीद नहीं है। इनमें से ज्यादातर घटनाएं चार जिलों- कश्मीर घाटी में कुपवाड़ा और बारामुल्ला और जम्मू क्षेत्र में पुंछ और राजौरी में हुई हैं।
मौतों, जख्म और संपत्ति के भारी नुकसान के अलावा, करनाह के सैकड़ों लोगों को जिंदा रहने की हताश कोशिश में अपने घर, उपजाऊ और खड़ी फसलों वाली कृषि भूमि के साथ अपना सारा सामान छोड़ने को मजबूर होना पड़ा है।
इश्फ़ाक सईद कहते हैं- “अनेक लोगों ने कुपवाड़ा जिला मुख्यालय में किराए पर घर ले लिये हैं जबकि तमाम अन्य लोगों ने श्रीनगर में शरण ली है। जरा सोचिए कि इस उथल-पुथल का हमारे बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर कैसा असर होगा।” उन्होंने कहा, “हिंसा कम भी हो जाती है, सीमा पर बंदूकें शांत भी हो जाती हैं, तब भी ग्रामीणों के लिए सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक फिर भी बनी रहेगी और वह है बिना फटे गोलों की वजह से बना रहने वाला खतरा। सीमा पार से हजारों गोले दागे गए हैं, और उनमें से कई खेतों और आस-पास के जंगलों में गिरे हैं। अतीत गवाह है कि पिछले तीन दशकों में, सैकड़ों लोग- जिनमें बच्चे भी शामिल हैं- सीमावर्ती क्षेत्रों में इन छिपे हुए खतरों के कारण हुए आकस्मिक विस्फोटों में अपनी जान गंवा चुके हैं।”
भारत और पाकिस्तान के बीच इस कभी न खत्म होने वाली दुश्मनी का खामियाजा हमेशा जम्मू-कश्मीर के लोगों को भुगतना पड़ता है। सात दशकों से भी ज्यादा समय बीत गए, खास तौर पर पिछले 36 सालों में उन्होंने लगातार खून-खराबा के साथ घरों और आजीविका का विनाश होते हुए देखा तथा उस दंश को झेला है। श्रीनगर के एक सेवानिवृत्त शिक्षक अली मोहम्मद वानी कहते हैं: “जैसा कि कहावत है, ‘जब हाथी लड़ते हैं या प्यार करते हैं, तो घास ही कुचली जाती है।’ जम्मू-कश्मीर के लोग वही घास ही तो हैं।”
(यह लेख 7 मई को लिखा गया है)You may also like
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