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hmt की इस घड़ी पर फिदा हुआ इंटरनेट! कन्नड़ नंबर और 'गंडभेरुंड' देखकर यूजर बोले- ये है हमारी असली विरासत

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सोचिए अगर आपकी घड़ी पर 1, 2, 3 की जगह ೧, ೨, ೩ लिखा हो और साथ ही उस पर कर्नाटक की शान ‘गंडभेरुंड’ का प्रतीक भी बना हो... तो कैसा लगेगा? कुछ लोगों ने कहा - ये बस एक डिजाइन है। लेकिन कन्नड़भाषियों के लिए ये सिर्फ डिजाइन नहीं, अपनी पहचान का एलान है।
ये है असली डिकॉलोनाइजेशन​





एक कन्नड़ युवक ने सोशल मीडिया पर अपनी कलाई की एक तस्वीर पोस्ट की। घड़ी पर अंग्रेजी में कुछ नहीं था। सिर्फ कन्नड़ अंक और कर्नाटक की राजकीय छवि 'गंडभेरुंडा'। और साथ ही लिखा - ब्रिटिश एरा के हैंगओवर से बाहर निकलना है तो एक कन्नड़िगा से पूछो कैसे। ये रहे कन्नड़ अंक। हमें अंग्रेजी की जरूरत नहीं। ये है असली डिकॉलोनाइजेशन। इस एक पोस्ट ने इंटरनेट पर तहलका मचा दिया। हजारों लाइक्स, सैकड़ों शेयर - लोग बस यही कह रहे हैं- भाषा हमारी, पहचान हमारी!
क्या है ‘गंडभेरुंड’? image

गंडभेरुंडा यानी दो सिरों वाला दिव्य पक्षी। ये सिर्फ एक प्रतीक नहीं, हिंदू मिथकों में अपार शक्ति और जुझारूपन का प्रतीक माना जाता है। मैसूर साम्राज्य का यह शाही निशान आज कर्नाटक सरकार का आधिकारिक चिन्ह भी है।


बता दें कि इस पोस्ट को पांच हजार से अधिक व्यूज और दो सौ से ज्यादा लाइक्स मिल चके हैं। साथ ही, यूजर्स ने कमेंट भी किए हैं। एक यूजर ने लिखा- बहुत सुंदर डिजाइन है। काश डिजिटल घड़ियों में भी कन्नड़ अंक आते। दूसरे ने कहा- क्या ये घड़ी उत्तर कर्नाटक में भी मिलती है? तीसरे ने कमेंट किया - ये सिर्फ घड़ी नहीं, हमारी भाषा और पहचान की घड़ी है!


क्या ये वाकई डिकॉलोनाइजेशन है?वहीं एक यूजर ने X पर AI असिस्टेंट Grok से पूछ लिया - क्या ये वाकई डिकॉलोनाइज़ेशन है? इस पर Grok ने जवाब दिया - कन्नड़ अंकों और गंडभेरुंड जैसे प्रतीकों का इस्तेमाल सांस्कृतिक पहचान को बढ़ावा देता है और उपनिवेशी मानसिकता को चुनौती देता है। ये डिकॉलोनाइजेशन की दिशा में एक कदम हो सकता है। हालांकि असली बदलाव तब होगा जब आर्थिक सशक्तिकरण, जमीन के अधिकार और राजनीतिक प्रतिनिधित्व जैसे बड़े मुद्दों पर काम होगा।



कुछ लोग इस घड़ी को देखकर सीधे बोले - मैं इसे अपनी विश लिस्ट में शामिल कर रहा हूं। तो कुछ इसे भाषा और संस्कृति के पुनर्जागरण की मिसाल मान रहे हैं। असल में ये सिर्फ एक घड़ी नहीं, एक सोच है। एक कदम है उस दिशा में जहां हम खुद से, अपनी भाषा से अपनी पहचान से फिर जुड़ रहे हैं।
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