नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश की जेल व्यवस्था को लेकर गंभीर चिंता जताई है। शीर्ष अदालत ने कहा है कि अदालत के स्पष्ट आदेश के बावजूद किसी आरोपी को 28 दिन तक जेल में रखना 'दुर्भाग्यपूर्ण' और 'निंदनीय' है। सुप्रीम कोर्ट ने दो टूक कहा कि चाहे आदेश सही हो या गलत, उसे मानना अधिकारियों की मूल जिम्मेदारी है।
यह टिप्पणी बुधवार को उस मामले में की गई, जिसमें एक आरोपी को सुप्रीम कोर्ट ने राज्य के धर्मांतरण विरोधी कानून के तहत दर्ज एक मामले में 29 अप्रैल को जमानत दी थी, लेकिन उसे 24 जून को गाजियाबाद जेल से रिहा किया गया। जस्टिस केवी विश्वनाथन की अध्यक्षता वाली बेंच ने यूपी सरकार को निर्देश दिया कि वह आरोपी को अंतरिम मुआवजे के रूप में पांच लाख रुपये का भुगतान करे। कोर्ट ने कहा कि आरोपी को उसकी स्वतंत्रता से वंचित करना संविधान के अनुच्छेद 21 का स्पष्ट उल्लंघन है।
जेल अधिकारियों का तर्क एक कमजोर बहानागाजियाबाद जिला जेल के अधिकारियों ने तर्क दिया कि जमानत आदेश में धारा 5 लिखा था, जबकि आरोपी पर धारा 5(i) के तहत मामला दर्ज था। इस पर कोर्ट ने टिप्पणी की कि यह तर्क एक कमजोर बहाना है और अधिकारियों की संवेदनहीनता को दर्शाता है। बेंच ने कहा कि मामला उतना सरल नहीं लगता और कोई गहरी वजह हो सकती है। क्या उपधारा का उल्लेख न होना उन अधिकारियों के लिए पर्याप्त आधार है, जो हमारी जेलों का संचालन करते हैं? अगर आप लोगों को इस वजह से जेल में रखते हैं, तो हम क्या संदेश दे रहे हैं? क्या गारंटी है कि और भी लोग इसी कारण जेल में नहीं सड़ रहे हैं?
मामले में कोर्ट ने दिया जांच का आदेशकोर्ट ने यह मानते हुए कि मामला केवल क्लेरिकल त्रुटि तक सीमित नहीं है, इसकी न्यायिक जांच का आदेश दिया है। गाजियाबाद के प्रधान जिला और सत्र न्यायाधीश को यह जांच सौंपते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि आरोपी को रिहा न करने की असली वजह क्या थी? क्या जेलों में और भी कैदी इसी तरह तकनीकी कारणों से बंद हैं?
भविष्य में गलती न करने का मिला आश्वासनसुनवाई के दौरान यूपी डीजी जेल विडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए पेश हुए और आश्वासन दिया कि भविष्य में ऐसी घटना दोबारा न हो, इसके लिए संवेदनशीलता बढ़ाने और सुधार के उपाय किए जाएंगे। अदालत ने यह उम्मीद जताई कि इस मामले की जांच में सच्चाई सामने आएगी और ऐसे मामलों की पुनरावृत्ति रोकी जा सकेगी।
यह टिप्पणी बुधवार को उस मामले में की गई, जिसमें एक आरोपी को सुप्रीम कोर्ट ने राज्य के धर्मांतरण विरोधी कानून के तहत दर्ज एक मामले में 29 अप्रैल को जमानत दी थी, लेकिन उसे 24 जून को गाजियाबाद जेल से रिहा किया गया। जस्टिस केवी विश्वनाथन की अध्यक्षता वाली बेंच ने यूपी सरकार को निर्देश दिया कि वह आरोपी को अंतरिम मुआवजे के रूप में पांच लाख रुपये का भुगतान करे। कोर्ट ने कहा कि आरोपी को उसकी स्वतंत्रता से वंचित करना संविधान के अनुच्छेद 21 का स्पष्ट उल्लंघन है।
जेल अधिकारियों का तर्क एक कमजोर बहानागाजियाबाद जिला जेल के अधिकारियों ने तर्क दिया कि जमानत आदेश में धारा 5 लिखा था, जबकि आरोपी पर धारा 5(i) के तहत मामला दर्ज था। इस पर कोर्ट ने टिप्पणी की कि यह तर्क एक कमजोर बहाना है और अधिकारियों की संवेदनहीनता को दर्शाता है। बेंच ने कहा कि मामला उतना सरल नहीं लगता और कोई गहरी वजह हो सकती है। क्या उपधारा का उल्लेख न होना उन अधिकारियों के लिए पर्याप्त आधार है, जो हमारी जेलों का संचालन करते हैं? अगर आप लोगों को इस वजह से जेल में रखते हैं, तो हम क्या संदेश दे रहे हैं? क्या गारंटी है कि और भी लोग इसी कारण जेल में नहीं सड़ रहे हैं?
मामले में कोर्ट ने दिया जांच का आदेशकोर्ट ने यह मानते हुए कि मामला केवल क्लेरिकल त्रुटि तक सीमित नहीं है, इसकी न्यायिक जांच का आदेश दिया है। गाजियाबाद के प्रधान जिला और सत्र न्यायाधीश को यह जांच सौंपते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि आरोपी को रिहा न करने की असली वजह क्या थी? क्या जेलों में और भी कैदी इसी तरह तकनीकी कारणों से बंद हैं?
भविष्य में गलती न करने का मिला आश्वासनसुनवाई के दौरान यूपी डीजी जेल विडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए पेश हुए और आश्वासन दिया कि भविष्य में ऐसी घटना दोबारा न हो, इसके लिए संवेदनशीलता बढ़ाने और सुधार के उपाय किए जाएंगे। अदालत ने यह उम्मीद जताई कि इस मामले की जांच में सच्चाई सामने आएगी और ऐसे मामलों की पुनरावृत्ति रोकी जा सकेगी।
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