कहा जाता है कि एक क्रूर एवं अत्याचारी व्यक्ति जंगल में भूख-प्यास से व्याकुल होकर इधर-उधर भटक रहा था, उसे आंवले का वृक्ष दिखाई पड़ा, उसने आंवले के वृक्ष से आंवले तोड़कर खाए, फल खाते समय वह पेड़ से गिरकर मृत्यु को प्राप्त हुआ। यमदूत जब उसके प्राण लेने पहुंचे, तो वे उसके शरीर को छूते ही दूर जा गिरे। ऋषियों ने बताया कि ब्रह्मा जी के नेत्रों से जिस आंवले वृक्ष की उत्पत्ति हुई है, उसका फल संसार के लिए अमृत समान है, उसने आंवले का सेवन किया था, जिसके फलस्वरूप वह पापमुक्त होकर बैकुंठ लोक का अधिकारी बन गया।
आंवला नवमी की कथा , एक ही वृक्ष में विष्णु और शिव का संगम - कल्पभेद से एक अन्य कथा का संदर्भ प्राप्त होता है, जिसके अनुसार एक बार माता महालक्ष्मी पृथ्वी पर भ्रमण कर रही थीं। विचरण के दौरान उनके मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि भगवान विष्णु और भगवान शिव, दोनों की एक साथ पूजा की जाए। किंतु प्रश्न था, ऐसा कौन-सा माध्यम हो, जो दोनों देवों को समान रूप से प्रिय हो? माता ने चिंतन किया, विष्णु तुलसी से प्रसन्न होते हैं, और शिव बेलपत्र से। इन दोनों पवित्र वनस्पतियों के गुण यदि किसी एक वृक्ष में समाहित हों, तो वह दोनों देवों की संयुक्त आराधना का साक्षी बन सकता है। तभी उनकी दृष्टि आंवले के वृक्ष पर पड़ी, उन्होंने अनुभव किया कि इस वृक्ष में तुलसी की पवित्रता और बेलपत्र की पावनता, दोनों विद्यमान हैं। इस भावना के साथ महालक्ष्मी जी ने आंवले के वृक्ष को विष्णु और शिव का प्रतीक मानकर उसकी पूजा की। उनकी सच्ची भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु और भगवान शिव स्वयं प्रकट हुए और देवी को वरदान दिया। माता लक्ष्मी ने प्रसन्न होकर आंवले के वृक्ष के नीचे दोनों देवों को भोजन अर्पित किया और उसके पश्चात वही भोजन प्रसाद रूप में स्वयं ग्रहण किया।
चरक संहिता में ऐसा उल्लेख मिलता है कि अक्षय नवमी के दिन ही महर्षि च्यवन ने आंवले के सेवन से सदा युवा रहने का वरदान प्राप्त किया था। एक अन्य मान्यता के अनुसार सतयुग का प्रारम्भ कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी से हुआ था। ऐसा भी कहा जाता है कि इसी दिन आदि गुरु शंकराचार्य को एक निर्धन स्त्री ने भिक्षा में सूखा आंवला दिया था। उस निर्धन स्त्री की गरीबी से द्रवित होकर शंकराचार्य ने मां लक्ष्मी की मंत्रों द्वारा स्तुति की, जो ‘कनकधारा स्तोत्र’ के रूप में जानी जाती है। उस निर्धन स्त्री के भाग्य में धन न होते हुए भी शंकराचार्य की विनती पर मां लक्ष्मी ने उसके घर स्वर्ण आंवलों की वर्षा करके उसकी दरिद्रता दूर की। कनकधारा स्तोत्र का पाठ सायंकाल देसी घी का दीपक जलाकर करने से व्यक्ति को व्यापार आदि में अपार सफलता मिलती है।
आंवला नवमी की कथा , एक ही वृक्ष में विष्णु और शिव का संगम - कल्पभेद से एक अन्य कथा का संदर्भ प्राप्त होता है, जिसके अनुसार एक बार माता महालक्ष्मी पृथ्वी पर भ्रमण कर रही थीं। विचरण के दौरान उनके मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि भगवान विष्णु और भगवान शिव, दोनों की एक साथ पूजा की जाए। किंतु प्रश्न था, ऐसा कौन-सा माध्यम हो, जो दोनों देवों को समान रूप से प्रिय हो? माता ने चिंतन किया, विष्णु तुलसी से प्रसन्न होते हैं, और शिव बेलपत्र से। इन दोनों पवित्र वनस्पतियों के गुण यदि किसी एक वृक्ष में समाहित हों, तो वह दोनों देवों की संयुक्त आराधना का साक्षी बन सकता है। तभी उनकी दृष्टि आंवले के वृक्ष पर पड़ी, उन्होंने अनुभव किया कि इस वृक्ष में तुलसी की पवित्रता और बेलपत्र की पावनता, दोनों विद्यमान हैं। इस भावना के साथ महालक्ष्मी जी ने आंवले के वृक्ष को विष्णु और शिव का प्रतीक मानकर उसकी पूजा की। उनकी सच्ची भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु और भगवान शिव स्वयं प्रकट हुए और देवी को वरदान दिया। माता लक्ष्मी ने प्रसन्न होकर आंवले के वृक्ष के नीचे दोनों देवों को भोजन अर्पित किया और उसके पश्चात वही भोजन प्रसाद रूप में स्वयं ग्रहण किया।
चरक संहिता में ऐसा उल्लेख मिलता है कि अक्षय नवमी के दिन ही महर्षि च्यवन ने आंवले के सेवन से सदा युवा रहने का वरदान प्राप्त किया था। एक अन्य मान्यता के अनुसार सतयुग का प्रारम्भ कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी से हुआ था। ऐसा भी कहा जाता है कि इसी दिन आदि गुरु शंकराचार्य को एक निर्धन स्त्री ने भिक्षा में सूखा आंवला दिया था। उस निर्धन स्त्री की गरीबी से द्रवित होकर शंकराचार्य ने मां लक्ष्मी की मंत्रों द्वारा स्तुति की, जो ‘कनकधारा स्तोत्र’ के रूप में जानी जाती है। उस निर्धन स्त्री के भाग्य में धन न होते हुए भी शंकराचार्य की विनती पर मां लक्ष्मी ने उसके घर स्वर्ण आंवलों की वर्षा करके उसकी दरिद्रता दूर की। कनकधारा स्तोत्र का पाठ सायंकाल देसी घी का दीपक जलाकर करने से व्यक्ति को व्यापार आदि में अपार सफलता मिलती है।
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