भगवान श्रीकृष्ण का संदेश आज भी उतना ही सार्थक है, “जिस प्रकार मैंने गोवर्धन पर्वत उठाकर सबकी रक्षा की, उसी प्रकार हर मनुष्य को अपने कर्तव्य और करुणा से समाज की रक्षा करनी चाहिए।” गोवर्धन पूजा आज के समय में भी उतनी ही प्रासंगिक है। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि प्रकृति का संतुलन बिगड़ने पर ही संकट आता है। जब हम पर्यावरण, जल और अन्न का सम्मान करेंगे, तभी जीवन में वास्तविक समृद्धि संभव होगी।
कैसे भगवान तोड़ते हैं अभिमान- भगवान अपने भक्तों और पूरे ब्रह्मांड की भलाई के लिए अहंकार और अभिमान को तोड़ते हैं। उनकी यह नीति अक्सर प्रत्येक संकट, दंड या लीला के माध्यम से होती है। उदाहरण स्वरूप, गोवर्धन पर्वत की कथा में आता है कि इंद्र अपने अहंकार और अभिमान में अंधे हो गए थे। उन्होंने अपने शक्ति और स्थिति के गर्व में गोकुलवासियों पर भारी वर्षा भेजी। तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी असीम शक्ति और विवेक का अद्वितीय प्रदर्शन किया। उन्होंने कनिष्ठा अंगुली पर गोवर्धन पर्वत उठाया, सभी को सुरक्षित रखा और इंद्र के अभिमान को समाप्त किया। श्रीकृष्ण द्वारा ऐसा करने से देवराज इन्द्र समझ गए कि उनकी सारी शक्ति भी कृष्ण की लीला के आगे बौनी हो गई। अहंकार आज तक न किसी का रहा है न रहेगा, क्योंकि प्रकृति सबसे पहले अहंकार का ही विनाश करती है। इस प्रकार इंद्र को यह एहसास हुआ कि अहंकार रहित होकर ही वह पूजने योग्य होंगे।
प्रचलित पौराणिक कथा के अनुसार, गोकुलवासी वर्षा के देवता कहे जाने वाले इंद्र को प्रसन्न करने के लिए प्रत्येक वर्ष उनकी पूजा करते थे, लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें ऐसा करने से रोककर गोवर्धन पर्वत की पूजा करने के लिए कहा। इस पर इंद्र ने क्रोधवश गोकुल पर भारी मूसलाधार बारिश करवा दी, जिससे ब्रजवासियों को बचाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने अपने हाथ की कनिष्ठा (सबसे छोटी अंगुली) पर सात दिन तक गोवर्धन पर्वत को उठाए रखा, तथा सभी ग्रामीणों, गोपी-गोपिकाओं, ग्वाल-बालों व पशु-पक्षियों की रक्षा की। सातवें दिन भगवान ने पर्वत को नीचे रखा और सभी गोकुलवासियों को प्रतिवर्ष गोवर्धन पूजा कर अन्नकूट उत्सव मनाने की आज्ञा दी। इसके बाद से ही श्रीकृष्ण भगवान गोवर्धनधारी के नाम से भी प्रसिद्ध हुए और इंद्र ने भी कृष्ण के ईश्वरत्व को स्वीकार कर लिया।
कैसे भगवान तोड़ते हैं अभिमान- भगवान अपने भक्तों और पूरे ब्रह्मांड की भलाई के लिए अहंकार और अभिमान को तोड़ते हैं। उनकी यह नीति अक्सर प्रत्येक संकट, दंड या लीला के माध्यम से होती है। उदाहरण स्वरूप, गोवर्धन पर्वत की कथा में आता है कि इंद्र अपने अहंकार और अभिमान में अंधे हो गए थे। उन्होंने अपने शक्ति और स्थिति के गर्व में गोकुलवासियों पर भारी वर्षा भेजी। तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी असीम शक्ति और विवेक का अद्वितीय प्रदर्शन किया। उन्होंने कनिष्ठा अंगुली पर गोवर्धन पर्वत उठाया, सभी को सुरक्षित रखा और इंद्र के अभिमान को समाप्त किया। श्रीकृष्ण द्वारा ऐसा करने से देवराज इन्द्र समझ गए कि उनकी सारी शक्ति भी कृष्ण की लीला के आगे बौनी हो गई। अहंकार आज तक न किसी का रहा है न रहेगा, क्योंकि प्रकृति सबसे पहले अहंकार का ही विनाश करती है। इस प्रकार इंद्र को यह एहसास हुआ कि अहंकार रहित होकर ही वह पूजने योग्य होंगे।
प्रचलित पौराणिक कथा के अनुसार, गोकुलवासी वर्षा के देवता कहे जाने वाले इंद्र को प्रसन्न करने के लिए प्रत्येक वर्ष उनकी पूजा करते थे, लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें ऐसा करने से रोककर गोवर्धन पर्वत की पूजा करने के लिए कहा। इस पर इंद्र ने क्रोधवश गोकुल पर भारी मूसलाधार बारिश करवा दी, जिससे ब्रजवासियों को बचाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने अपने हाथ की कनिष्ठा (सबसे छोटी अंगुली) पर सात दिन तक गोवर्धन पर्वत को उठाए रखा, तथा सभी ग्रामीणों, गोपी-गोपिकाओं, ग्वाल-बालों व पशु-पक्षियों की रक्षा की। सातवें दिन भगवान ने पर्वत को नीचे रखा और सभी गोकुलवासियों को प्रतिवर्ष गोवर्धन पूजा कर अन्नकूट उत्सव मनाने की आज्ञा दी। इसके बाद से ही श्रीकृष्ण भगवान गोवर्धनधारी के नाम से भी प्रसिद्ध हुए और इंद्र ने भी कृष्ण के ईश्वरत्व को स्वीकार कर लिया।
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