प्रतिवर्ष आषाढ़ मास शुक्ल पक्ष की एकादशी से कार्तिक मास शुक्ल पक्ष की एकादशी तक के कालखंड समय को चार्तुमास कहते हैं क्योंकि यह वह चार महीनों का समय है जब प्रकृति खुद इंसान और भगवान को मिलाती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इन चार महीनों में शुभ मांगलिक कार्य जैसे विवाह, गृह प्रवेश, देवी-देवताओं की प्राण-प्रतिष्ठा, यज्ञादि संस्कार स्थगित रहते हैं। चातुर्मास्य (चातुर्मास) का सम्बन्ध देवशयन अवधि से है।
चातुर्मास व्रत कब प्रारम्भ करें- वर्षाकाल के चार महीने सावन, भादों, आश्विन और कार्तिक में सम्पन्न होने वाले उपवास का नाम चातुर्मास है, कुछ भक्त व्रतारम्भ आषाढ़ शुक्ल एकादशी से करते हैं, कुछ द्वादशी या पूर्णिमा को या उस दिन जब सूर्य कर्क राशि में प्रविष्ट होता है, “चातुर्मास व्रत” का आरम्भ करते हैं। यह चाहे कभी भी आरम्भ हो, लेकिन कार्तिक शुक्ल एकादशी को ही पूर्ण किया जाता है, सन्यासी लोग सामान्यतः गुरू पूर्णिमा से चातुर्मास का आरम्भ मानते हैं।
इस प्रकार करें आचरण- चातुर्मास के दौरान लोग व्रत, उपवास, सादा भोजन, ब्रह्ममुहूर्त में उठना, अतिथियों की सेवा, पवित्र ग्रंथों का पठन और दान जैसे कार्यों को अपनाते हैं। कुछ लोग इस अवधि में प्याज, लहसुन, मांस, शराब आदि से भी पूर्ण परहेज करते हैं।
चातुर्मास, आज के वैज्ञानिक परिपेक्ष्य में- चातुर्मास, धर्म के माध्यम से सुखी एवं सफल जीवन जीने के लिए पर्याप्त धीरज और संयम रखकर स्वस्थ रहने का मार्ग दिखाता है। इन चार माह में साधना के साथ अगर परहेज किया जाए तो व्यक्ति की जिन्दगी का स्वरूप और जीने के ढंग में विशेष बदलाव आता है। चातुर्मास का समय वर्षाकाल का होता है। आग बरसाती गर्मी की तपन के बाद मनमोहक वर्षा, मौसम परिवर्तन के साथ प्रकृति करवट लेती है और इसी के साथ वातावरण में जीवाणु एवं रोगाणु अधिक सक्रिय हो जाते हैं, ऐसे में चातुर्मास के व्रत में बताया गया परहेज एवं नियम-संयम शरीर को स्वस्थ रखने के लिए कारगर सिद्ध होता है, साथ ही इस काल में यात्राओं एवं आयोजनों का निषेध किया गया है ताकि अनेक लोगों के एकत्र होने से संक्रमण फैलने की सम्भावनाऐं क्षीण रहें। ऋषियों-मुनियों और साधकों के लिए यह काल विशेष तपस्या और ध्यान का होता है, इसे धर्म, ध्यान और संयम का काल भी कहा गया है।
चातुर्मास व्रत कब प्रारम्भ करें- वर्षाकाल के चार महीने सावन, भादों, आश्विन और कार्तिक में सम्पन्न होने वाले उपवास का नाम चातुर्मास है, कुछ भक्त व्रतारम्भ आषाढ़ शुक्ल एकादशी से करते हैं, कुछ द्वादशी या पूर्णिमा को या उस दिन जब सूर्य कर्क राशि में प्रविष्ट होता है, “चातुर्मास व्रत” का आरम्भ करते हैं। यह चाहे कभी भी आरम्भ हो, लेकिन कार्तिक शुक्ल एकादशी को ही पूर्ण किया जाता है, सन्यासी लोग सामान्यतः गुरू पूर्णिमा से चातुर्मास का आरम्भ मानते हैं।
इस प्रकार करें आचरण- चातुर्मास के दौरान लोग व्रत, उपवास, सादा भोजन, ब्रह्ममुहूर्त में उठना, अतिथियों की सेवा, पवित्र ग्रंथों का पठन और दान जैसे कार्यों को अपनाते हैं। कुछ लोग इस अवधि में प्याज, लहसुन, मांस, शराब आदि से भी पूर्ण परहेज करते हैं।
चातुर्मास, आज के वैज्ञानिक परिपेक्ष्य में- चातुर्मास, धर्म के माध्यम से सुखी एवं सफल जीवन जीने के लिए पर्याप्त धीरज और संयम रखकर स्वस्थ रहने का मार्ग दिखाता है। इन चार माह में साधना के साथ अगर परहेज किया जाए तो व्यक्ति की जिन्दगी का स्वरूप और जीने के ढंग में विशेष बदलाव आता है। चातुर्मास का समय वर्षाकाल का होता है। आग बरसाती गर्मी की तपन के बाद मनमोहक वर्षा, मौसम परिवर्तन के साथ प्रकृति करवट लेती है और इसी के साथ वातावरण में जीवाणु एवं रोगाणु अधिक सक्रिय हो जाते हैं, ऐसे में चातुर्मास के व्रत में बताया गया परहेज एवं नियम-संयम शरीर को स्वस्थ रखने के लिए कारगर सिद्ध होता है, साथ ही इस काल में यात्राओं एवं आयोजनों का निषेध किया गया है ताकि अनेक लोगों के एकत्र होने से संक्रमण फैलने की सम्भावनाऐं क्षीण रहें। ऋषियों-मुनियों और साधकों के लिए यह काल विशेष तपस्या और ध्यान का होता है, इसे धर्म, ध्यान और संयम का काल भी कहा गया है।
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